Saturday, October 30, 2010

बाबा मुझे माफ करो

मेरी यह पोस्ट शायद कुछ लोगों को नाराज कर सकती है। हो सकता है कि कुछ लानते-मलानतें भी भेजें। पर मैं खुद को रोक नहीं सका हूं। सोचा तो यह था कि पुणे से लौटते ही अच्छे-अच्छे संस्मरण लिखूंगा और ढेर सारी बातें शेयर करूंगा। पर वापस लौटते समय लिए गए एक निर्णय से काफी दुखी हूं।
बात 24 अक्टूबर की है। इसी दिन रात को मनमाड़ से दिल्ली तक मेरी ट्रेन थी। सोचा दिनभर खाली क्या करेंगे। शनि सिंगणापुर और शिरडी में घूम आते हैं (दर्शनों की बात तो बाद में ही सोचते हैं)। पिछले 14 दिनों की थकान को साइड में रखकर भारी बैग उठाए मैं अपने मेरठ के एक मित्र के साथ चलने को तैयार हो गया। बस और ऑटो से धक्के खाते हुए सबसे पहले शनिदेव के द्वारे पहुंचे। समझिए की शनिदेव की कृपा शुरू हो गई। ऑटो वाले ने शनिदेव मंदिर से दूर एक मैदान में छोड़ दिया। यहां हमारी तरह हजारों लोग आए हुए थे। हमें देखते ही एक दुकानदार दौड़ा आया और हमारा सामान अपनी दुकान में रखवा दिया। हम तो चाहते ही यही थे कि कहीं सामान रखने की जगह मिल जाए। फिर जाएंगे दर्शन करने। पर सामान रखवाने की कीमत मुझे चार सौ रुपए देकर चुकानी पड़ी। बदले में क्या मिला, दो-चार फोटो और दो सौ ग्राम सरसो का तेल। बंदे ने बताया कि ये तेल शनिदेव को चढ़ाना है। इससे वो खुश होते हैं।
मैंने पूछा दादा (यहां रहते-रहते हर किसी को दादा कहने की आदत हो गई), हम तो अपने शहर में तेल नहीं लेकर जाते। अगर लें भी जाएं तो एक कटोरी चढ़ा देते हैं। हम इतना तेल ले जाकर क्या करेंगे।
उसने हैरान होते हुए कहा, ये देखिए बाऊजी। लोग पांच-पांच लीटर तेल लेकर जा रहे हैं और आप दो सौ ग्राम तेल चढ़ाने में हिचक रहे हैं।
मैंने ज्यादा बहस नहीं की और स्नान करके रीति अनुसार धोती पहनकर चल दिया शनिदेव के द्वारे।
लंबी लाइन। चलते-चलते पैर थक गए। फर्श पर तेल ही तेल था। बुरी तरह टूट चुका था। वो तो अच्छा हुआ गिरा नहीं। सोच रहा था, पानीपत से क्या मैं यह तेल चढ़ाने यहां आया हूं। क्या कर रहा हूं मैं...।
आखिर में शनिशीला के नजदीक पहुंच ही गया। हजारों हजार लोग तेल चढ़ाने में जुटे हुए थे। हम सुबह ग्यारह बजे पहुंच गए थे वहां। सुबह से इतनी भीड़ थी तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि दिनभर में लाखों लीटर सरसों का तेल चढ़ जाता होगा। जिस देश में चालीस करोड़ जनता बीस रुपए रोजाना से कम पर गुजारा करती है, उस देश के देवता लाखों लीटर तेल पीकर संतुष्ट होते हैं।
मेरा मूड खराब हो चुका था और मैंने आधे मन से शीला पर थोड़ा तेल चढ़ाया और पैकेट वहीं रखकर आगे निकल आया।
जाते-जाते तय कर लिया, दोबारा कम से कम तेल चढ़ाने तो नहीं आऊंगा।
बाहर आकर उसी दुकान पर कपड़े बदले और निकल चले शिरडी। सवारियों से भरी निजी गाड़ी में हम भी फेवीकोल की तरह चिपक कर बैठ गए। गाड़ी वाले ने बताया, एक घंटे तक पहुंच जाएंगे शिरडी। मगर हाय री किस्मत। थोड़ी दूर चलते ही दिखाई दिया कि आरटीओ का छापा था। गाड़ी वाले ने तुरंत स्टेयरिंग घुमाया और पहिए कच्चे रास्ते पर दौडऩे लगे। गाड़ी उछलती-कूदती कच्चे रास्ते पर दौड़ती हुई तीन घंटे बाद हमें शिरडी तक आखिर ले ही गई।
बीच में मन ही मन डॉयलॉग मार चुका था, उम्मीदों का चिराग जलाए रखना...। कभी तो रात होगी।
खैर, शाम से पूर्व हम शिरडी पहुंच गए। यहां उतरते ही सिंगणापुर की तरह एक बंदा आया और हमारा सामान रखवाने की बात करने लगा। मगर इस बार हमने सामान दुकान पर नहीं बल्कि क्लॉक रूम में रखवाया। सात रुपए का टिकट कटवाया। वो बंदा हमें अपनी दुकान पर ले गया। यहां पर भी डेढ़ सौ रुपए की पर्ची कटवाई और प्रसाद का थैला लेकर हम चल दिए दर्शन करने।
जाहिर है तन टूट चुका था और मन भी आधा फूट चुका था। फिर भी अपने मित्र के साथ कदमताल करते हुए चलते रहे। मेरा मित्र काफी धार्मिक ह्रदय का बंदा है। शनि मंदिर में भी जय शनिदेव जय शनिदेव करते आंखें मूंदे हुए चलता रहा। यहां भी साईं भक्ति में कंपलीट डूबा हुआ था। मैं भी ईश्वर को मानता हूं, पर आवाज पता नहीं कहां गायब हो जाती है।
थोड़ी आगे पहुंचे ही थे कि अंदर जाने का रास्ता दिखाई दिया। इससे पहले कि अंदर जाते, सिक्योरिटी गार्ड ने रोक लिया।
भाई कहां जा रहे हो। यहां वीआईपी पास मिलते हैं। अगर आपको पास लेकर दर्शन करना है तो जाओ, नहीं तो आगे से दर्शन करो।
मैं चौक उठा। दादा ये क्या माजरा है।
भाई साहब, सौ रुपए देकर पास मिलता है। पास लोगे तो पंद्रह मिनट में नंबर आ जाएगा और नहीं लोगे तो डेढ़ घंटे में नंबर आएगा।
रोम-रोम तो कह रहा था कि सौ रुपए दो और दर्शन करके चलते बनो।
पर अगले ही पल यह ख्याल मन से निकल गया। शनि मंदिर से जो खट्टा अनुभव लेकर चला था, यहां भी दिल और टूट गया।
सौ रुपए देकर साई बाबा के दर्शन। क्यों? जिसके पास सौ रुपए नहीं है वो बेचारा लाइन में लगा रहे। तड़पता रहे दर्शनों को। वाह रे साई बाबा। यहां भी अमीरों की सुनवाई।
मन तो किया यहीं से वापस लौट जाऊं। पर नहीं कर सका। वही हुआ जो सिक्योरिटी गार्ड ने बताया था। बिना पास के लाइनों में लगे हुए भक्तों का नंबर डेढ़ घंटे में आया जबकि पास लेकर आए भक्त हमारे सामने से विशेष गेट खुलवाकर दर्शन करके चलते बने।
मन ही मन गीत गाने लगा...

जरा मुल्क के रहबराओं को बुलाओ

ये कूचें ये गलियां ये मंजर दिखाओ

जिन्हें नाज है हिंद पर उनको लाओ

जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं?

कहां हैं, कहां हैं, कहां हैं?

मेरे साथ ही कुछ बुजुर्ग भी चल रहे थे। मन में ख्याल आया कि अगर वीआईपी पास बनाना ही है तो इन बुजुर्गों का फ्री क्यों नहीं बनाते। ये भी किया जा सकता है जो बच्चे अपने माता-पिता को लेकर आएं, उनका पास फ्री बनाया जाएगा। कम से कम पास के ही बहाने बच्चे अपने माता-पिता को लेकर तो आ सकते हैं।
मरते-मरते किसी तरह दर्शन किए और बाहर निकले। मैं आगे चल रहा था अपने मित्र से बात करते हुए। बात करते-करते मैं तो आगे बढ़ गया, जब पीछे मुढ़कर देखा तो मित्र था ही नहीं। पीछे गया तो मित्र महोदय एक मंदिर में साष्टांग प्रणाम किए हुए लेटे हुए थे। मैं बाहर ही बैठ गया और मन ही मन प्रार्थना की कि मुझ दुष्ट का तो जो होगा सो होगा, पर मेरे मित्र को साई बाबा जरूर कामयाबी देना।
जाते-जाते यहां भी तय किया, दोबारा नहीं आऊंगा। कम से कम जब तक ये सौ रुपए के वीआईपी पास दर्शन खत्म नहीं होते।
ह्रदय इतना टूट चुका था कि तय किया कि घर जाकर प्रसाद भी नहीं बांटूंगा। क्यों बांटू प्रसाद। इसका मेरे अंतर्मन ने कोई जवाब नहीं दिया।
आप निराश मत होइए और मेरे शब्दों से कोई धारणा भी मत बनाइएगा। अगली पोस्ट में अच्छी-अच्छी बातें बताऊंगा। मैं 10 अक्टूबर से 23 अक्टूबर तक पुणे रहा। यहां एनएफएआई और एफटीआई की तरफ से सीने कोरसपोंडेट कोर्स का आयोजन किया गया था। अगली पोस्ट में इनका जिक्र करूंगा।

Wednesday, October 6, 2010

एक मौत और छुट्टी...।

शादीशुदा परिवार पर हास्यविनोद से भरे लेख को कंपलीट कर मैं ब्लॉग पर डालने की तैयारी कर रहा था। तभी मेरी सिस्टर ने स्कूटी का हॉर्न दिया। उसके जल्दी आने पर चौक गया और गेट खोलकर कॉलेज से जल्दी आने का कारण पूछा।
कॉलेज के टीचर के युवा बेटे की अक्समात मौत होने पर शोकस्वरूप छुट्टी कर दी गई।
फिर तो सारे टीचर संस्कार में गए होंगे। तू क्यों नहीं गई। कितने बजे होगी अंत्येष्टि। चल फिर अब साथ ही चल पड़ेंगे, मैंने उससे पूछा।
कोई फायदा नहीं है। वहां कोई नहीं जा रहा। कॉलेज में छुट्टी हो गई, तो सारे घर या इधर-उधर चले गए। फिर मैं वहां क्या करती। जब हम रजिस्टर पर साइन करने जा रहे थे, उसी समय सारे टीचर्स बाहर खड़े थे।
एक टीचर कह रहे थे, रात को ठीक से सो नहीं सका। फिल्म देखने चले गए थे। चलो अच्छा ही हुआ छुट्टी मिल गई। थकावट दूर हो जाएगी। इतने में दूसरे ने कहा, कॉलेज में स्टूडेंट पढ़ते तो हैं नहीं। फिर हम क्यों सिरदर्द बढ़ाएं। छुट्टी हो ही गई है। चलो इसी बहाने मैकडी पर बर्गर खाने चलते हैं।
कॉलेज में सबको पता था, टीचर के बेटे की मौत हो गई है। पर एक मैडम अपनी सगाई की खुशी में मिठाई का डिब्बा लिए घूम रही थी। साथ ही चहक रही थी, क्योंकि इस छुट्टी से उसे अपने होने वाले जीवनसाथी के साथ घूमने का मौका जो मिल गया था। कुछ ने अवसर का 'लाभ' उठाया और मॉल में फिल्म देखने निकल गए। एक क्लर्क बोला, रजिस्टर पर लिखते-लिखते थक गया हूं। जरा सा आराम नहीं मिलता। ओए, छोटू चाय लेकर आ जरा। चाय पीकर घर चलते हैं।
ये तो किसी की मौत पर सेलिब्रेशन मना रहे हैं।
उसका एक-एक शब्द मुझे अंदर तक झकझोर गया। ये सब मैं यहां इसलिए बता रहा हूं क्योंकि ये किसी अशिक्षित या ऐरे-गैरी जगह की बात नहीं है। शिक्षा के मंदिर में जब किसी की मौत को छुट्टी का नाम देकर जश्न मनाया जाएगा, तब उस समाज की संवेदनाएं कैसी होंगी, ये बताने की जरूरत नहीं है। ...और कुछ लिखने की हिम्मत भी नहीं हो रही अब।
कमलेश्वर जी ने जब 'दिल्ली की एक मौत' कहानी लिखी थी, उस समय तक शायद हृदय के किसी कोने में भावनाएं जीवित थी, मगर आज तो वो भी मर चुकी हैं। क्योंकि आज कोई किसी के आखिरी सफर में भी साथ नहीं देता। क्योंकि एक मौत हमारे लिए छुट्टी जो लेकर आती है।

बड़े कमाल का है ये दौर
दूसरों के आंसूओं में
ढूंढते हैं अपनी खुशियां
दुख देकर चैन तो पहले भी हमने लूटा
अब झूठी बूंदे तक नहीं बहती
ये तरक्की, कोरापन है या कुछ और

बड़े कमाल का है ये दौर।