Saturday, January 22, 2011

इस तड़प का भी अपना मजा है

जब हम बच्चे थे (वो तो अब भी हैं, कद बढ़ गया बस) तब सोचा करते थे कि यार इन फिल्मवालों के मजे हैं। सारी दुनिया घूमते हैं, ऐश करते हैं। बचपन से फिल्मी खबरें पढऩे का बढ़ा शौक रहा है।
पापा जी ने पूछा, इंदिरा गांधी के कितने बेटे हैं।
इसका जवाब तो उस समय नहीं पता होता था मगर धर्मेंद्र के कितने बच्चे हैं, यह जरूर पता होता था।
पापा जी अखबार की ही दुनिया में हैं। अखबारों के एजेंट हैं, सो हमें दुनियाभर के अखबार पढऩे को मिल जाते। फिल्मों की खबरें पढऩे का इतना चस्का था कि संडे को हम दो-दो सप्लीमेंट मंगाते थे। उस समय केवल संडे को ही चार पेजों का फिल्मी अखबार मिलता था। मैं और मेरी बहन, दोनों यही पन्ना पढऩे का इंतजार करते थे। इसलिए उस दिन झगड़ा न हो, पिताजी दो सप्लीमेंट भेज देते। कहानियां, गॉसिप और फिल्में देख-देखकर जी करता एक नाटक खेला जाए।
और एक दिन मौका मिल गया।
मैंने, अपनी बहन और बहन की सहेली के साथ डाकुओं का एक नाटक खेलना शुरू कर दिया। नाटक पंजाबी में था, और डाकू को लड़की को उठाकर ले जाना था।
जाहिर है, मैं डाकू बना था।
मुझे रौब जमाने में बड़ा मजा आता था।
मैंने रोबिले अंदाज में कहा,
ओ कुडि़ए।
ऐ शीशे उत्ते जदों तक नचेंगी, ओदों तक ही बचेंगी।
इससे पहले कि नाटक गति पकड़ता, मम्मी ने मेरी आवाज सुन ली और उनके हाथों ने गति पकड़ ली। मेरी जो धुनाई हुई, आज तक याद है। अब जब भी मैं फिल्मों की बात करता हूं तो मजाक में घरवाले कह देते हैं, क्यों भूल गया हे, बचपन दी पिटाई।
वैसे फिल्म बनाना तो दूर कैमरा तक आज तक तरीके से ऑपरेट नहीं कर सका हूं। मगर एक तड़प है, जिसका अपना ही मजा है। यही तड़प पूणा तक भी ले गई। पूणा की यादों की दूसरी किस्त का मकसद असल में इसी चुलबुलाहट का जिक्र करना है।
छोटे कद के संजीव दीक्षित। डॉक्यूमेंट्री और मेलोड्रामा का पाठ पढ़ाने में माहिर। इनसे पहले किसी ने भी यह नहीं पूछा कि क्या आप भी फिल्म बनाना चाहते हैं या फिर इस लाइन में ही कुछ तीर, मोला या फिर चाकू-छुरी मारना चाहते हैं।
माय फ्रेंड्स। मैं जानता हूं कि आप सबके दिल में कुछ न कुछ करने की चाहत है, जो यहां तक खींच लाई है। पर क्या कभी आपने इस चाहत की तरफ शिद्दत से एक कदम भी बढ़ाया है। चलो, मैं आज आपको कुछ नहीं पढ़ाऊंगा। क्या आप मुझे एक कहानी, एक नाटक या कुछ भी लघु कथा सुना सकते हैं। उनके इस अप्रत्याशित सवाल पर सभी चुप।
वो समझ गए। और कहा, मैं अगली क्लास में आपसे आपकी कहानी सुनुंगा। आप कुछ भी सुना दें। देश के अलग-अलक कोनों से आप आए हैं। पूणा में भी बहुत कुछ देखा होगा। जो भी आपको अच्छा लगे, वो सुना दें। मगर शर्त यह होगी कि उसे डायरी पर लिखें। क्योंकि बिना डायरी पर लिखी आपकी कल्पनाएं केवल कल्पनाएं ही रह जाएंगी। एक सच जान लीजिए, यह कभी साकार नहीं होती, जब तक कि इन कल्पनाओं को कागज पर उकेरेंगे नहीं।
इसके बाद उन्होंने डॉक्यूमेंट्री और मेलोड्रामा के बारे में कुछ टिप्स दिए और इन पर थोड़ा बहुत बताया।
क्लास खत्म हुई और मेरे दिमाग में छटपटाहट शुरू हो गई।
कौन सी कहानी सुनाऊंगा।
कहीं सबके सामने इज्जत पुरानी दही में पानी मिलकर खट्टी लस्सी जैसी न हो जाए। सबको दिखाने के लिए चेहरे पर कोई तनाव नहीं था, मगर अंदर ही अंदर तो धक-धक हो रही थी। इतना डर तो मम्मी की पिटाई का भी नहीं था।
खैर, रात को हॉस्टल पहुंचे और मैंने फटाफट अपनी डायरी खोल ली। कल्पनाओं को पन्ने पर जो लाना था। ऊटपटांग कहानियां तो पहले भी लिखता रहता हूं, पर डर के कारण किसी को पढ़ाता नहीं हूं। उस रात को अपने मित्र पंकुल जी और योगेश जी के साथ पूणा को केंद्र में रखकर एक स्टोरी सुनाई। कहानी बेहद बंडल थी, मगर उन्होंने आलोचना नहीं की।
अगले दिन सुबह पहली क्लास ही संजीव दीक्षित जी की थी। उन्होंने कल की बात दोहराई और सबसे पूछा, क्या किसी ने कहानी लिखी। अगर लिखी है तो सामने आकर सुनाए। किसी ने कोई जवाब नहीं दिया।
मैंने सोचा, अच्छा है यार। जान बची। पर सच ये नहीं था। मैं चाहता था कि कोई कहानी सुनाए तो कम से कम मुझमें भी हिम्मत आए।
कोई नहीं उठा, कहानी सुनाने के लिए।
इस बार संजीव जी ने जोर देकर कहा, यार सुनाओ। अच्छा। जो भी दिल से कहानी सुनाना चाहता है, वो सुना दें। यकीन मानिए, आपका विश्वास ही बढ़ेगा।
मैंने हिम्मत जुटाई और पहुंच गया अपनी डायरी लेकर।
गुड। संजीव जी ने हिम्मत बढ़ाते हुए कहा। आप मेरी चेयर पर बैठ जाओ और समझो कि मैं प्रोड्यूसर हूं। डरो मत। बस। पिटाई नहीं करूंगा।
सभी मेरी ओर हैरानी से देख रहे थे। मेरी हिम्मत बढऩे की एक वजह थी हिंदी भाषा। संजीव जी हिंदी भाषा में ही हमसे बात कर रहे थे। इससे पहले ज्यादातर सभी टीचर्स ने इंग्लिश में ही बात की और इंग्लिश में सभी ने जवाब दिया। इंग्लिश तो मेरी छोटी बुआ जैसी है, जिससे मेरी कभी नहीं बनी।
मेरी कहानी के बाद दूसरे दो साथियों ने भी डायरी में लिखा हुआ पढ़कर सुनाया। अपनी कहानी जरा बाद में बताता हूं, क्योंकि बोरिंग है और फिर आगे लिखने की हिम्मत नहीं रह जाएगी।

अनुजा ने बेहद भावुक कहानी सुनाई। दिल्ली मेट्रो का एक सच।

दिल्ली वालों की मेट्रो में तकलीफ को उन्होंने बेहद भावुकता से प्रस्तुत किया। मेट्रो में इतनी भीड़ होती है कि आम यात्रियों को बैठने की सीट तो दूर खड़ा होना भी मुश्किल हो जाता है। इसके बाद स्टेशन पर उतरने का एक युद्ध। मेट्रो के दरवाजे फटाफट खुलते और बंद होते हैं। भीड़ इतनी होती है कि ट्रेन पर चढऩे वाले किसी को बाहर तक नहीं निकलने देते। सभी को अंदर जाने की जल्दी होती है। पर वो अंदर से बाहर जाने वालों की तकलीफ नहीं समझते।
कहानी एक युवक की है, जो इंटरव्यू के लिए जा रहा है। समय पर नहीं पहुंचा तो नौकरी नहीं मिलेगी। उसे राजीव चौक पर उतरना है। भीड़ इतनी है कि धक्कामुक्की में उसकी क्रीज की हुई शर्ट बुरी तरह से खराब हो जाती है। बेहद मुश्किल से उसने बैग पकड़ा हुआ है। इधर-उधर हिलने पर यात्रियों का गुस्सा उसे झेलना पड़ता है। जिस नौकरी के लिए वह जा रहा है, वह उसके लिए बेहद जरूरी है। राजीव चौक पर जैसे ही मेट्रो रूकती है, वह चाहकर भी नीचे नहीं उतर पाता। और दरवाजा बंद हो जाता है और मेट्रो आगे चल पड़ती है।
दिल्ली के आधुनिक दिल मेट्रो ने उसे इंटरव्यू में फेल कर दिया।
संजीव जी ने यह कहानी सुनकर मुंबई की लोकल ट्रेनों का जिक्र किया। उन्होंने बताया कि वैसे तो सीट मिलती नहीं। अगर सीट पर कब्जा जमाना हो तो वो चढ़ते ही बैग को सीट की तरफ उछाल देते हैं। मतलब रिस्क लेना पड़ता है। कई जगहों पर तो लोकल ट्रेनों में दबंग लोग चढऩे तक नहीं देते। अगर चढ़ गए तो जबरन उतरने नहीं देते। क्योंकि उन लोगों को कार्ड खेलने में परेशानी होती है।
दूसरी कहानी छत्तीसगढ़ से आए एक साथी की थी। उसने कविता के माध्यम से हिला दिया।
उन्होंने नक्सलवाद पर कुछ शब्द सुनाए। उन्होंने बताया कि नक्सली के हाथों में हथियार हैं और वो शांति की बात कर रहे हैं। सेना के हाथ में भी हथियार हैं, और वो भी शांति की बात कर रहे हैं।
बंदे ने क्या बात कही थी। लूट लिया उसने तो। जरा उसकी बात नक्सली और सरकार सुन ले और इसका अर्थ भी समझ जाए तो शायद फसाद ही खत्म हो जाए।

मेरी कहानी का नाम था टिकट की कीमत

यह
कहानी एक ऐसे बंदे से शुरू होती है, जो मुंबई से जम्मू तक के लिए टिकट रिजर्व करवाता है। वह बेहद गरीब और बेरोजगार है। ट्रेन के त्यौहारी सीजन के आने से कुछ माह पहले ही वो सीट बुक करवा लेता है और निकल पड़ता है यात्रियों की तलाश में। जी हां। यही उसके और परिवार की रोजी-रोटी का जरिया है। ट्रेन में खड़े रहने वाले यात्रियों को वह अपनी सीट मुहैया करवाता है और खुद खड़ा होकर हजारों किलोमीटर लंबा सफर तय करता है। पर उस दिन पूणा में एक खास घटना घटित होती है। विधानसभा चुनाव के परिणाम आ गए हैं और सरकार बनाने के लिए पार्टी को एक आजाद उम्मीदवार का समर्थन हासिल करना है। अगर वो समर्थन नहीं देगा तो सरकार नहीं बनेगी। वो आजाद उम्मीदवार अपनी सीट का करोड़ों में सौदा करता है और सरकार बनवा देता है। उस विधायक को पुलिस सुरक्षा में स्टेशन से ट्रेन में ले जाया जा रहा था। सैकड़ों जवान और नेता उसे पलकों पर बैठाए भगवान जी की पालकी की तरह उठाए ले जा रहे थे। ठीक उसी स्टेशन पर ट्रेन में अपनी सीट बेचने वाला पकड़ा जाता है। टिकट चेकर और पुलिसकर्मी उसे हाथों में रस्सी बांधकर गिरफ्तार कर ले जा रहे हैं। स्टेशन पर सीट बेचने वाले विधायक और उस गरीब पर कैमरा एक जगह फोकस करता है।
यही मैं कहानी खत्म कर देता हूं।
सवाल यह था कि जिस सरकार ने करोड़ों रुपए देकर विधायक खरीदे, क्या वो हमें ईमानदार राज दे सकेगी। विधायक ने करोड़ों रुपए में अपना ईमान बेचा तो उसे इतना मान-सम्मान और उस बेचारे ने खड़ा रहना मंजूर होकर कुछ रुपए लेकर अपने परिवार को पालने के लिए जोखिम उठाया तो उसे क्या मिला। जेल।

मैंने पिछली रात को पंकुल जी और योगेश जी को जो कहानी सुनाई थी, वो कहानी क्लास में नहीं सुनाई। चार किशोर युवाओं पर आधारित पांच मिनट की कहानी से मैं डर गया था। पर इस कहानी को मैंने लिखा है और उसे कभी फुरसत के पलों में ब्लॉग पर भी डाल दूंगा।
पर उसी रात को मैंने यह स्टेशन की कहानी भी बना ली थी, जिसे सुबह डरते-डरते सुना दिया। मुझे तो खुशी मिली कहानी सुनाने में, हालांकि बेहद खराब थी। कंपलीट नहीं थी। हां, तारीफ जरूर की सभी ने। इसके लिए एक बार फिर सभी का तहे दिल से थैंक्स।
इन कहानियों के दौर के बाद संजीव जी ने 'कहानी कैसे-कैसे मोढ़ लेती है और कैसे झट से बदल जाती है। कहां से कहां पहुंच जाती है।' इसका बेहद मजेदार फंडा बताया। इस पर बाद में गौर फरमाएंगे।
कहानियों के बारे में ज्यादा अच्छे से पढऩा है तो रश्मि दी का ब्लॉग पढ़ें। http://mankapakhi.blogspot.com/
मेरा एक मित्र है, उसे भी बड़ी ललक लगी रहती है सिनेमा और कहानियों की। मैंने जब उसे यह बात बताई तो उसने कागज पर लिखना तो नहीं मगर ब्लॉग जरूर बना दिया। अब वह आजकल कविताएं लिखने में मगन है।
तो जी अगर आपको भी यह बीमारी है तो कम्प्यूटर की हार्डडिस्क या फिर डायरी में चुग्गा-पानी डालते रहे और कीबोर्ड/पेन बजाते रहें। कसम से मजा बहुत आएगा।
कम से कम टेंशन तो बनी ही रहेगी। अच्छी या खराब। क्या करें और क्या न करें।
देरी से पोस्ट डालने की आदत से बहुत डांट खा चुका हूं। पर क्या करूं, मजबूर हूं। आलसी जो हूं।
हां, आखिर में एक बात।
मेरे कुछ मित्रों को यह टॉपिक पसंद नहीं है। उनसे मैं माफी चाहता हूं। इन संस्मरण से फ्री होते ही कुछ अन्य चीजें लिख पाऊंगा।
ओके
टाठां।