Sunday, December 12, 2010

दस का पहला दम


हेडिंग से समझ गए होंगे कि दस से कुछ न कुछ लिंक तो होगा। ठीक समझ रहे हैं आप। खैर, इसकी चर्चा जरा बाद में करते हैं।
सबसे पहले आपको लेकर चलते हैं पुणे नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया के कांफ्रेंस कम प्रीमियर बॉक्स में। यहां फिल्मों के शो भी होते हैं और क्लास भी लगती है।
पहली मुलाकात हुई एनएफएआई के पूर्व निदेशक और रिटायर्ड प्रो. सुरेश छाबडिय़ा सर से। फिल्मों को बेहद बारीकी से पढऩे वाले छाबडिय़ा सर से मिलने से पूर्व आप सोच नहीं सकते कि फिल्मों से कोई इतना प्रेम भी कर सकता है। पर हां, एक बात का ख्याल रखिएगा, उनके सामने सिंह इज किंग जैसी मसाला फिल्म की चर्चा न करें तो ठीक रहेगा। वो भले ही बुलंद आवाज में नहीं कहते, मगर मैं उनकी भावनाओं को दुष्यंत जी के इन शब्दों में बुदबुदा रहा था,

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

क्या है फिल्म। क्या सोचते हैं आप?
मेरे लिए बेहद आसान जवाब था, मनोरंजन का जरिया (अच्छा हुआ बोला नहीं)
मेरे मेरठ के मित्र पंकुल शर्मा ने जब डेविड धवन की चर्चा की तो वो एकदम से हैरान हो गए।
मुझे लगा, लो बेटा- खुशवंत सिंह जी को पार्टी में बुलाकर ओनली वेज खिलाने और पानी पिलाने वाली बात कर दी (एक दिन खुशवंत जी को किसी ने पार्टी में बुलाया और चिकन-वाइन सर्व नहीं की। उसके बाद उन्होंने उनकी पार्टी में जाना बंद कर दिया, ऐसा उन्होंने अपने एक लेख में बताया था। अब आप समझ सकते हैं कि मैं सोच रहा था कि बात बिगड़ी और क्लास की छुट्टी)
पर अल्लाह की मेहरबानी!
उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, प्लीस आस्क दिस क्वाशच्न टू अनदर टीचर।
उनका मंतव्य सभी समझ चुके थे, इसलिए अब चुप रहे।
डायरेक्टर ने क्या थीम लेकर फिल्म बनाई है, एक तिनका भी अगर हिलता है तो क्यों हिलता है। बंदे ने चालीस-पचास करोड़ रुपए लगा दिए और हमने मल्टीप्लैक्स में पॉपकार्न और पेप्सी गले में उतारी, डकार लेकर रिजल्ट बता दिया, फिल्म बढिय़ा है या घटिया (यहां फिल्म समीक्षकों की वाट लगा रहे हैं), छाबडिय़ा जी से कुछ इस स्टाइल में रूबरू हुए हम।
लुक एट द लैपर्ड (पर्दे पर फिल्म दिखाई... करीब पांच मिनट तक हवाएं चल रही है और साथ ही कुछ आड़ी-तिरछी प्रतिमाएं नजर आ रही हैं। इसी सीन में राजपरिवार का तनाव भी दिखाया जा रहा है)
तो क्या देखा आपने, छाबडिय़ा जी का सवाल था यह हम सबके लिए।
लिसन, ये तो लगा ही होगा कि कुछ न कुछ तनाव है। डायरेक्टर ने कितनी चतुराई से हवाओं का प्रयोग किया है। ये हवाएं भी तनाव का अहसास करवाते हुए हमें छू रही हैं। फिर ये प्रतिमाओं की तस्वीरें। कितनी बेढंगी हैं। यह भी कह रही है कुछ न कुछ गड़बड़ है। राजपरिवार के बीच जो दिख रहा है, वह भी बता रहा है कुछ तो दिक्कत है।
क्या आपने फील किया यह सब।
ओए- यार ये क्या था। अच्छा हुआ, सर ने मुझसे नहीं पूछा कि चलो बताओ तुमने क्या फील किया इस सीन के बारे में। मेरे सिर में दर्द हो चुका था ये सीन देखकर। जब उन्होंने इसे एक्सप्लेन किया तो मुंह खुला का खुला रह गया।
अगला सीन उन्होंने दिखाया, बॉम्बे फिल्म का।
(तू ही रे...गीत में मनीषा कोइराला घर से प्रेमी को मिलने के लिए दौड़ी चली आ रही है। प्रेमी समुद्र तट पर उसका इंतजार कर रहा है। तेज हवाएं चल रही हैं और उसका पल्लू भी एक जगह प्रतिमा में फंस जाता है। बारिश की बूंदे और एक-एक चीज बेहद खूबसूरती से पिरोई गई थी, ऐसा मैंने पहली बार वॉच किया)
सीन खत्म होते ही, फिर छाबडिय़ा सर ने पूछा-क्या देखा।
इस बार मैंने कहा- हाए कम्बख्त जालिम हवाएं। इतनी भी क्या बेरुखी पल्लू तक पकड़ लिया (अब सोचता हूं, क्या बकवास बोल दिया)
छाबडिय़ा सर से हमने जापान, ईरान और अन्य मुल्कों में बनने वाली क्लासिक फिल्मों के बारे में जाना। कई बार तो मन बोर हो जाता, मगर अब लगता है कि वाकैयी में वो सही है।
हम आम जीवन की तरह ड्रेसिंग रूम देखकर बंदे के प्रति नजरिया बना लेते हैं। घर के अंदर जाएंगे ही नहीं तो असलियत कैसे पता चलेगी। यह बात फिल्म पर भी लागू होती है। फिल्म की आत्मा को समझना भी जरूरी है। ये मैंने जाना इस वर्कशॉप से और खासकर रश्मि दीदी का ब्लॉग पढ़कर।
रिलेक्स फ्रेंड्स। आई नो, आप बोर हो रहे हैं। अगली बार आपको समर नखाटे सर से मिलवाऊंगा।
नखाटे सर दिखने में जितने नाटे हैं, उतने ही खतरनाक भी हैं। पहली क्लास में उनका पहला डॉयलॉग

मेरे कर्ण अर्जुन आएंगे, मेरे कर्ण अर्जुन आएंगे
एक मिनट- ये हो क्या रहा है।

उनके साथ बिताए करीब पांच घंटे बेहद रोमांचक और मस्तीभरे रहे।

जाते-जाते छाबडिय़ा सर के लिए एक बार फिर दुष्यंत जी के शब्द गुनगुना रहा हूं...

उस नई कविता पे मरती नहीं हैं लड़कियां

इसलिए इस अखाड़े में नित गजल गाता हूं मैं!

...और हां, वर्कशॉप में शामिल मित्रों में सबसे ज्यादा प्रभावित किया मुझे अनुजा, जलपति, मारुफ और पंकुल ने। इनकी भी बात होगी, मगर अगली बार।
रूको यार, हेडिंग का मतलब तो समझ लो। अगर वहीं बता दिया होता तो शायद आप आगे ही निकल जाते। दस दिन की वर्कशॉप थी, तो दस पोस्ट तक पकाने वाला हूं । अगली बार सच्ची में सच्ची, मसालेदार क्लास के बारे में चर्चा करूंगा।
ओके टाठां (टाटा की तो वाट लगेली है ना)