जनवरी की 22 तारीख के बाद अपनी दुकान (ब्लॉग) पर राशन पहुंचाने आया हूं।
डायलॉग तो आपको पता ही होगा, काम ना करने के सौ बहाने।
आपने ये चुटकुला भी सुना ही होगा,
संता और बंता सो रहे थे। चोर आए और चादर चुराकर ले गए।
संता उठा तो उसने बंता को कहा, चोर को पकड़ते हैं।
बंता ने कहा, छोड़ यार। जब वो सिराना लेने आएगा तो पकड़ लेंगे।
इसके बाद दोनों सो गए।
संता और बंता की तरह मेरा भी यही हाल है।
मैं भी सोचता हूं कि लिखने-लिखाने के झंझट में क्या पड़ूं।
कोई आए और मेरे ही नाम से लिखकर चला जाए।
इस बार तो सच्ची में ही ऐसा हो गया।
आज की दुकान का राशन-पानी मुझे दिया है मेरी लिटिल सिस्टर पिंकी ने।
यूं कि सारा दिन चपड़-चपड़ करने वाली सिस्टर को कॉलेज की मैग्जीन में एक स्टोरी देनी थी।
मेरा कॉलर नजर आया तो पकड़कर खींच दिया। कॉलर के पीछे मेरी नाजुक सी गर्दन भी थी।
आप रात को तीन बजे सोए होंगे और कोई अगर सुबह-सुबह सात बजे इस तरह उठा दे तो गुस्सा कितना आएगा। और वो भी इस बात के लिए कॉलेज में स्टोरी देनी है। उसका टॉपिक डिस्कस करना है।
जी तो कर रहा था कि उसकी चोटी काट दूं, पर अंदर ही अंदर थोड़ा खुश भी था कि चलो, आज दिन में सुबह का मूवी शो देख लूंगा।
भई अपुन को तो सुबह का ही शो सूट करता है। सस्ता भी पड़ता है और भीड़भाड़ कम होती है।
पिंकी कम्प्यूटर पढ़ाती है। तो मैंने कहा, तू क्यों न आईटी या फिर मशीनी दुनिया पर कुछ लिख मार।
हमने इसी तरह कुछ देर तक टॉपिक के बारे सोचा और फाइनली एक कहानी का प्लॉट तैयार हो गया।
मगर शर्त यह रखी कि कहानी वो ही लिखेगी। मैं इसमें कुछ हेल्प नहीं करने वाला हूं।
जैसे ही उसने यस कहा, मेरी तो मुराद पूरी हो गई। मैं चादर तानकर फिर एक घंटे के लिए सोने चला गया। थोड़ा आराम करने के बाद ही फिल्म देखने जाना था ना।
इसके अगले ही दिन उसने कहानी मेरे सामने लाकर रख दी।
मैंने पढ़ी तो पसंद आई। सोचा, क्यों न आप सबके साथ भी शेयर कर लूं। असल में इस कहानी को शेयर करने के पीछे एक खास मकसद भी है। इसके बारे में दो मिनट बाद बताता हूं।
..........
रोहन आज बहुत खुश है। उसे कलाई पर राखी बांधने के लिए बहन जो मिल गई है। पर ये खुशी कितनी सच्ची है, यह तो उसका दिल ही जानता था।
बचपन में जब सारे दोस्त राखी का धागा कलाई पर बांधकर आते थे, तब वो कितना निराश हो जाता था।
मां से बार-बार पूछता, मेरी बहन क्यों नहीं है। सबकी बहन हैं।
मुझे भी एक बहन चाहिए। मां, चाहकर भी कोई जवाब नहीं दे पाती।
उस दिन खिलौनों की दुकान पर मशीनी गुडिय़ा देखकर रोहन के चंचल मन ने खुद से वादा कर लिया था, वो बड़ा होकर अपने लिए खुद एक बहन बनाएगा। वो इंजीनियर बनेगा और रोबोट बनाएगा।
उसने रोबो बहन का नाम भी सोच लिया था।
मशीनी रोबो को वह मनबो बुलाएगा।
उसके मन की हर बात सुनेगी वो। वो कहेगा तो उठेगी, वो कहेगा तो बैठेगी।
क्यों मम्मा। कैसा रहेगा यह नाम।
तू तो पागल हो गया है। ऐसे कोई मशीनी बहन थोड़ा बनती है, मां उसकी बातों को बचपना कहकर टाल देती थी।
पर मां को क्या पता था। बचपन में जो जिद पकड़ी थी, वही उसकी जिंदगी बन जाएगी।
इंजीनियरिंग में एडमिशन ही इसलिए लिया था, ताकि वो अपनी मन की मुराद पूरी कर सके। दिन-रात बस मशीनों और कम्प्यूटर में आंखें गड़ाए रहता था। पूरे दस साल और आठ महीने लगे उसे एक मशीनी रोबो को इंसानी रूप देने में। उस दिन उसने एक कामयाबी हासिल कर ली थी।
उसके सपनों ने अब उड़ान भरनी शुरू कर दी थी। मंजिल अब ज्यादा दूर नहीं थी।
सांझ में झूके हुए बादलों को जब वो देखता, तब लगता मानों वो भी उसे आशीर्वाद देने के लिए ही नीचे आ रहे हैं।
पर वक्त कहां मिलता उसे इन बादलों से बात करने के लिए।
वो तो खोया रहता बस उन लम्हों के इंतजार में, कब मनबो उसकी कलाई पर सच में राखी बांधेगी। बचपन में देखी मशीनी गुडिय़ां साकार रूप लेने लगी थी।
उसके इशारों पर दाएं-बाएं चलती थी। रिमोट से बटन दबाता तो मुस्कुराती और इशारा करता तो बैठ जाती।
बस, वो अपने मन से कुछ नहीं करती थी।
जैसी वो बचपन में चाहता था, ठीक वैसे ही तो बन रही थी वो।
उसकी हर बात मानने वाली मनबो।
उसकी कल्पना उसी के मुताबिक साकार ले रही थी। पर फिर भी उसे एक बात मन में अकसर कचोटती रहती।
उसके दोस्तों की बहनों को किसी काम के लिए रिमोट के इशारे की जरूरत नहीं थी। राखी बांधने के लिए किसी भाई को अपनी बहन को आदेश नहीं देना होता था। सब बहनें बाजार से खुद राखी खरीदती और थाली सजाकर प्यार से भाई की कलाई को प्रेम से सजाती।
कल ही तो था रक्षा बंधन।
उस शाम को मां उसके ऑफिस में खाना देने आई थी। उस शाम ही क्यों। ऐसे कितनी हीं शामें थी, जब मां रोहन के लिए टिफिन लेकर उसे खाना खिलाने आ जाती थी।
उसे कहां सुध रहती थी खाने की।
पर उस शाम को रोहन की आंखों की नमी मां से छुपी नहीं।
मां ने जब प्यार से सहलाया तो गोद में सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लग गया था वो।
मां। कल फिर रक्षा बंधन है।
पर देखो ना। ये मनबो मुझसे कोई बात ही नहीं करती।
क्या नहीं सिखाया मैंने इसे। हर उस बात का ध्यान रखती है, जो मैं इसके सिस्टम में डालता हूं। पर ये क्यों नहीं जानती थी, कल इसके लिए सबसे खास दिन है। क्यों ये भी दूसरों की तरह मार्केट नहीं जा सकती। क्या ये कभी मेरे के लिए राखी नहीं खरीदेगी। क्या मैं इसे कहूंगा, तभी मेरी कलाई का सूनापन दूर करेगी।
क्यों मां।
ऐसी मशीन क्यों नहीं बन सकती, जो मेरे दिल की बात सुने। मेरे रिमोट के इशारों की नहीं।
मैं सब दोस्तों को जब बताता हूं कि मैंने अपने के लिए खुद बहन बनाई है, तब अपने चेहरे पर खुशी के भाव दिखाने के लिए अंदर से कितने आंसू निकलते हैं, ये मैं ही जानता हूं।
रोहन, जब हमने गाडिय़ां बनाई तब पैरों की कीमत भूल गए। जब हमने हथियार बनाए तब इंसान की कीमत भूल गए। जब हमने कम्प्यूटर बनाए तब अपनों को भूल गए। मशीनें इंसान के लिए होती है, इंसान मशीनों के लिए नहीं।
वो एक मशीन ही तो थी, जिसने तेरी बहन को दुनिया में आने ही नहीं दिया।
बचपन में मां, क्यों उस सवाल को टाल जाती थी, आज उसका जवाब मां के आंसू दे रहे थे।
अपने बेटे की सूनी कलाई को हाथ में पकड़े मां ने उसके सारे जवाब दे दिए।
मनबो, उन दोनों के पास ही खड़ी थी। हर बात से अनजान।
सिर्फ एक आदेश के इंतजार में शायद। रोहन के रिमोट दबाने के...।
अगर पढ़ें तो जरूर बताएं कैसी लगी कहानी। बिगड़ते लिंगानुपात पर सही तो कहा है। क्या मालूम, हमें आगे चलकर इंसानों की जगह मशीनों से ही काम चलाना पड़े। पर क्या वो इंसान बन पाएंगी।
खैर, बात आगे बढ़ाता हूं। कहानी यहां शेयर करने का मकसद। पिछली पोस्ट में मैंने जिक्र किया था कि कहानी कैसे-कैसे मोढ़ लेती है और कैसे उसकी शुरुआत होती है। इस सब पर हमने पुणे में एक 45 मिनट के लेक्चर में जाना।
ये तो कहानीकार ही अच्छे से बता सकता है कि, वो कैसे-कैसे इतना अच्छा लिख जाते हैं।
अब रश्मि दी का ही ब्लॉग (http://mankapakhi.blogspot.com/2011/04/blog-post.html) देख लो । पता नहीं कैसे लिख जाती हैं इतना अच्छा।
हमारे टीचर संजीव जी ने एक शानदार डेमो दिया।
उन्होंने एक लड़की से कहानी शुरू की। सबसे पहली सीट पर बैठे साथी को कहा, कहानी को एक लाइन में आगे बढ़ाओ।
साथी ने कहा लड़की गूंगी और बहरी है।
इसके बाद दूसरे साथी ने एक लाइन में कहानी को आगे बढ़ाया, लड़की अस्पताल जाती है।
तीसरे ने भी एक लाइन में बताया, अस्पताल बंद है।
इस तरह वो कहानी हम सबके पास से गुजरते हुए एक सुखद अंत तक पहुंचती है।
इस डेमो के पीछे उनका कहना था कि कहानीकार ऐसे ही कहानी नहीं लिख देता। कितने ही पड़ावों से वो गुजरता है। मनबो लिखने से पहले पिंकी ने भी ढेर सारा डिस्कस किया और जमकर मेरा खून पिया (नींद आ रही है अब तक, कमजोर भी लग रहा हूं)।
ओके-ओके-ओके-ओके
लेक्चर लंबा हो रहा है।
तीन महीने बाद आया हूं तो दुकान को पूरी भरकर ही जाऊंगा। अब अगला मौका पता नहीं कब मिलेगा।
टाठां।
आदरणीय लोग अधिक ख़तरे में हैं -सतीश सक्सेना
-
परिवार में दख़लंदाज़ी , बड़प्पन के कारण हर समय तनाव, नींद की कमी ,
अस्वस्थ भोजन के साथ हाई बीपी , मोटापा, शारीरिक गतिविधियों में कमी के कारण
बढ़ती डायबिट...
5 weeks ago