Thursday, July 18, 2013

चिंता मेरी या हम सबकी

चिंता मेरी या हम सबकी

 
बात तो बहुत छोटी सी है, लेकिन मुझे बड़ी प्रतीत हो ही थी। सो, आपके साथ साझा कर रहा हूं। मेरी सवा साल की गुडिय़ा है, जबकि एक परिचित की गुडिय़ा साल की है। कुछ दिन पहले परिचित हमारे घर अपनी गुडिय़ा के साथ आए। उनकी गुडिय़ा पोएम, 'ऊपर पंखा चलता है, नीचे गुडिय़ा सोती है...' पर अच्छे हाव-भाव बना रही थी। मम्मी-पापा जो कहते, उसे फॉलो कर रही थी। जबकि हमारी गुडिय़ा, जो उससे थोड़ी बड़ी है, उसकी अपना ही नटखटपन है। जैसे- उसे बाय करने को कहो तो डांटते हुए स्वर में हू कहती है, ताकि कोई उसे छोड़कर न जाए। यानी, जब मन हुआ हाथ हिलाकर बाय कहना और जब मन न हुआ तब डांट देना। पानी को अभी मम कहकर नहीं बुलाती। बस रोने लग जाती है। सारा दिन सिर्फ खेलने की तरफ और चीजें उठाकर इधर-उधर रखने का शौक। आप सोच रहे होंगे कि इसमें समस्या क्या है।
समस्या यह है कि गुडिय़ा की मम्मी और परिवार वालों को यह चिंता सता रही है कि हमारी गुडिय़ा हमारे कहे अनुसार हाव-भाव क्यों नहीं बनाती। सबके सामने मम्मी को मम्मी, पापा को पापा क्यों नहीं कहती। पोएम पर कुछ करती क्यों नहीं।
मैं उन्हें समझाता हूं, अरे भई- नन्ही सी जान है बेचारी। सवा साल के बच्चे को क्या अपने इशारों पर नचाओगे। उसके भोलेपन, मासूमियत और बालमन को इन्जवॉय करो। लेकिन मेरी इस बात को कोई सुनता ही नहीं। कभी-कभी तो मैं भी उनकी बातों से चिंतित हो जाता हूं। फिर जब मैं कहता हूं कि इसे तो चार साल बाद स्कूल में डालेंगे। बचपन जी लेने दो इसे। मेरी इस बात पर तो मानों तूफान खड़ा हो जाता है। सवा दो साल में स्कूल डालने की बात शुरू हो जाती है।
अब बताइए, क्या किया जाए...।