Sunday, July 31, 2011

शादी का लड्डू

शादी के लड्डू का स्वाद कैसा होता।
यह महज एक सवाल न होकर भारी-भरकम अध्ययन का विषय बन चुका है। चुटकुलों से लेकर गंभीर साहित्य तक में पन्ने काले हो चुके हैं, की-बोर्ड खटखटाए जा चुके हैं और यह सदक्रम जारी है। कुंवारे (पहले मैं भी) इस तरह की चर्चाओं को बड़े स्वाद लेकर सुनते हैं तो शादीशुदा (शहीद) मसाले लगाकर अनुभव सुनाते हैं। चूंकि मैं भी अब दूसरी कैटेगरी में शामिल हो गया हूं तो सोचा क्यों न पिछले डेढ़ महीने में लड्डू का स्वाद कैसा था, उसे अपने इस मोहल्ले में ही शेयर कर लूं। इसी बहाने कुछ कुंवारों को स्वाद लेने का मौका मिल जाएगा तो कुछ शहीद अपने अनुभव भी बांट लेंगे।
बात शुरू करता हूं आखिर से। क्योंकि यहीं से तो इस पोस्ट का बीज पड़ा था।
विवाह के ठीक एक महीने बाद 20 जुलाई को शिल्पा (मेरी बे-गम) ने मुझे मुरझाया हुआ गुलाब (सॉरी शिल्पा, इसमें तुम्हारा क्या कसूर। तुमने तो सुबह ही गुलाब ले लिया था और मुझे रात को दिया।) थमाते हुए हैप्पी मंथली वेडिंग डे विश किया।
मेरे देर से आने की वजह से गुलाब का फूल मुरझा गया था, सो मैडम नाराज तो थी। लेकिन कहां कुछ नहीं (थैंक्यू, पर ये मेरी भूल थी)
तो जी, थोड़ी देर खामोशी के बाद मुझ पर एक सवाल दागा- जब आपकी मेरे साथ सगाई हुई थी, तब आपको कैसा फील हुआ था।
अब बताओ जरा, इसका क्या जवाब हो सकता है। फिर भी मैंने गंभीर मुद्रा में इस सवाल का जवाब देने के लिए सगाई के दिन को याद करने के लिए अपने दिमाग की कैसेट को छह महीने पीछे ले गया। कोई डिप्लोमेटिक जवाब नहीं मिला तो कह दिया अच्छा लगा था।
मुझे उम्मीद नहीं थी, मेरे छोटा सा जवाब बखेड़ा भी खड़ा कर देगा।
बस अच्छा लगा था, और कुछ नहीं। आपको और कुछ फील नहीं हुआ। आपने कुछ महसूस नहीं किया। मुझे तो लगा था कि आप कोई अच्छा सा जवाब देकर मुझे खुश कर देंगे। मंथली वेडिंग डे का सारा मूड खराब कर दिया, शिल्पा के खतरनाक तेवर देखकर एक बार तो मैं सहम ही गया।
अरे मैडम, इसमें नाराज होने की क्या बात है। अच्छा लगा था का मतलब है कि बहुत अच्छा लगा था। मैं अपनी भावनाओं को शब्दों में बता नहीं सकता, मैंने जब साहित्यिक अंदाज में मामले को संभालने की कोशिश की तो उल्टा जवाब मिला कि अब बहाने मत बनाओ। मुझे पता चल गया है कि आप मुझसे कितना प्यार करते हो।
अरे यार, इसमें यह प्यार का पैमाना कहां से आ गया, मैंने थोड़ा रुखे मन से कहा।
बस फिर क्या था, तब तो बात और बिगड़ गई।
आ गए ना सच पर। चेहरे पर दिखा दिया ना सच। आपको तो कुछ भी महसूस नहीं हुआ था।
ओफ्फो। अच्छा बाबा। ये लो। ऐ बन्ने अस्सी हाथ। चरणां नू टेकया मथा। तुसी ही दसो, तवानों की फील होया सी, मैंने वही सवाल शिल्पा की तरफ उछाल दिया।
बताऊं...। चलो हटो। मैं नहीं बताती, शर्माते हुए जिस अदा से उसने यह कहा तो जी कर रहा था कि वीडियो शूट कर लूं।
अब बताओ भी, मुझसे तो इतना झगड़ रही थी। अब क्या हुआ, मैंने रौब से कहा।
अच्छा तो फिर सुनो, मैंने तो उसी दिन अपनी मम्मी को कह दिया था कि अब मैं किसी की हो गई। जब आप गए थे ना तब वो थ्री इडियट्स फिल्म का गाना आया था, जुबी-डुबी। उसमें ऐसा लग रहा था कि आप मेरे आमिर (वैसे आपकी हाइट उससे ज्यादा है, फिर भी चलेगा) और मैं करीना (मेरी हाइट तो उसके बराबर है, इसलिए मुझे पक्का चलेगा) । मैं तो बस आपके ख्यालों में ही डूब गई थी। मुझे पता नहीं क्या हो गया था। दो दिन तक तो मैं ढंग से खाना भी नहीं खा सकी........किटटिककिटटिककिटटिक......।
बीस मिनट के बिना सांस रोके और पानी पिए लंबे-चौड़े फिलिंग ज्ञान के बीच में टोकते हुए मैंने सहमे-सहमे हिम्मत की और कहा कि बाबू ऐसा ही तो फील किया था मैंने।
बस रहने दो। अब जब मैंने बताया तब आपको याद आ गया। मैं आपको अच्छे से जान गई हूं। बड़े चालू हो आप...। जाओ मुझे आपसे कोई बात नहीं करनी।
इस पूरे एपिसोड के कारण मैं जो कुल्फी लेकर आया था, वो गर्मी के कारण पिघल चुकी थी। मैंने जब कहा कि कुल्फी खा लेते हैं तो यहां भी गड़बड़ हो गई। कुल्फी पिघलने का दोष मेरे सर हो गया, क्योंकि मैंने उसी समय इसे खाने का सुझाव नहीं दिया जब मैं इसे लेकर आया था। खैर मुझे अपनी फेवरीट तीले वाले कुल्फी चमच्च से खानी पड़ी।
इस बीच, फिर एक पंगा ले लिया।
यार, शिल्पा तुम भी ना। अब शादी हो चुकी है और तुम सगाई के दिनों को लेकर बैठी हो। चलो कुछ और बात करते हैं, मैंने उस पुराने टापिक को बदलने की कोशिश की।
अच्छा ठीक है, आप ये बताओ.....।
(ना-ना, ये एपिसोड अगली पोस्ट में)

कृप्या इस पोस्ट को कोई अन्यथा ना ले। मैं तो यूं ही लिख रहा हूं। एपिसोड जारी रहेंगे। शिल्पा भी लिख रही है, तो उसका भी ब्लॉग बन जाएगा तो वो भी वहां कहानियां डाल देगी, जिससे हिसाब बराबर हो जाएगा। अगर नहीं डालेगी तो मैं उसकी कहानियां यहां पोस्ट कर दूंगा।

सबक : क्रोधित पत्नी और जलते-जलते बीच में बुझे बम को कभी छेडऩा नहीं चाहिए, क्योंकि किसी भी समय धमाका हो सकता है। इसलिए पानी डालकर इन्हें शांत करें।

पत्नी गंभीर मुद्रा में कोई भी सवाल पूछे तो उसे हल्के में ना लें। मेरे जैसा ढीला जवाब ना दें।
गलती अगर आपकी है तो सॉरी जरूर बोले और अगर नहीं है फिर तो जरूर सॉरी बोलें।

Wednesday, April 13, 2011

मनबो

जनवरी की 22 तारीख के बाद अपनी दुकान (ब्लॉग) पर राशन पहुंचाने आया हूं।
डायलॉग तो आपको पता ही होगा, काम ना करने के सौ बहाने।
आपने ये चुटकुला भी सुना ही होगा,
संता और बंता सो रहे थे। चोर आए और चादर चुराकर ले गए।
संता उठा तो उसने बंता को कहा, चोर को पकड़ते हैं।
बंता ने कहा, छोड़ यार। जब वो सिराना लेने आएगा तो पकड़ लेंगे।
इसके बाद दोनों सो गए।
संता और बंता की तरह मेरा भी यही हाल है।
मैं भी सोचता हूं कि लिखने-लिखाने के झंझट में क्या पड़ूं।
कोई आए और मेरे ही नाम से लिखकर चला जाए।
इस बार तो सच्ची में ही ऐसा हो गया।
आज की दुकान का राशन-पानी मुझे दिया है मेरी लिटिल सिस्टर पिंकी ने।
यूं कि सारा दिन चपड़-चपड़ करने वाली सिस्टर को कॉलेज की मैग्जीन में एक स्टोरी देनी थी।
मेरा कॉलर नजर आया तो पकड़कर खींच दिया। कॉलर के पीछे मेरी नाजुक सी गर्दन भी थी।
आप रात को तीन बजे सोए होंगे और कोई अगर सुबह-सुबह सात बजे इस तरह उठा दे तो गुस्सा कितना आएगा। और वो भी इस बात के लिए कॉलेज में स्टोरी देनी है। उसका टॉपिक डिस्कस करना है।
जी तो कर रहा था कि उसकी चोटी काट दूं, पर अंदर ही अंदर थोड़ा खुश भी था कि चलो, आज दिन में सुबह का मूवी शो देख लूंगा।
भई अपुन को तो सुबह का ही शो सूट करता है। सस्ता भी पड़ता है और भीड़भाड़ कम होती है।
पिंकी कम्प्यूटर पढ़ाती है। तो मैंने कहा, तू क्यों न आईटी या फिर मशीनी दुनिया पर कुछ लिख मार।
हमने इसी तरह कुछ देर तक टॉपिक के बारे सोचा और फाइनली एक कहानी का प्लॉट तैयार हो गया।
मगर शर्त यह रखी कि कहानी वो ही लिखेगी। मैं इसमें कुछ हेल्प नहीं करने वाला हूं।
जैसे ही उसने यस कहा, मेरी तो मुराद पूरी हो गई। मैं चादर तानकर फिर एक घंटे के लिए सोने चला गया। थोड़ा आराम करने के बाद ही फिल्म देखने जाना था ना।
इसके अगले ही दिन उसने कहानी मेरे सामने लाकर रख दी।
मैंने पढ़ी तो पसंद आई। सोचा, क्यों न आप सबके साथ भी शेयर कर लूं। असल में इस कहानी को शेयर करने के पीछे एक खास मकसद भी है। इसके बारे में दो मिनट बाद बताता हूं।
..........
रोहन आज बहुत खुश है। उसे कलाई पर राखी बांधने के लिए बहन जो मिल गई है। पर ये खुशी कितनी सच्ची है, यह तो उसका दिल ही जानता था।
बचपन में जब सारे दोस्त राखी का धागा कलाई पर बांधकर आते थे, तब वो कितना निराश हो जाता था।
मां से बार-बार पूछता, मेरी बहन क्यों नहीं है। सबकी बहन हैं।
मुझे भी एक बहन चाहिए। मां, चाहकर भी कोई जवाब नहीं दे पाती।
उस दिन खिलौनों की दुकान पर मशीनी गुडिय़ा देखकर रोहन के चंचल मन ने खुद से वादा कर लिया था, वो बड़ा होकर अपने लिए खुद एक बहन बनाएगा। वो इंजीनियर बनेगा और रोबोट बनाएगा।
उसने रोबो बहन का नाम भी सोच लिया था।
मशीनी रोबो को वह मनबो बुलाएगा।
उसके मन की हर बात सुनेगी वो। वो कहेगा तो उठेगी, वो कहेगा तो बैठेगी।
क्यों मम्मा। कैसा रहेगा यह नाम।
तू तो पागल हो गया है। ऐसे कोई मशीनी बहन थोड़ा बनती है, मां उसकी बातों को बचपना कहकर टाल देती थी।
पर मां को क्या पता था। बचपन में जो जिद पकड़ी थी, वही उसकी जिंदगी बन जाएगी।
इंजीनियरिंग में एडमिशन ही इसलिए लिया था, ताकि वो अपनी मन की मुराद पूरी कर सके। दिन-रात बस मशीनों और कम्प्यूटर में आंखें गड़ाए रहता था। पूरे दस साल और आठ महीने लगे उसे एक मशीनी रोबो को इंसानी रूप देने में। उस दिन उसने एक कामयाबी हासिल कर ली थी।
उसके सपनों ने अब उड़ान भरनी शुरू कर दी थी। मंजिल अब ज्यादा दूर नहीं थी।
सांझ में झूके हुए बादलों को जब वो देखता, तब लगता मानों वो भी उसे आशीर्वाद देने के लिए ही नीचे आ रहे हैं।
पर वक्त कहां मिलता उसे इन बादलों से बात करने के लिए।
वो तो खोया रहता बस उन लम्हों के इंतजार में, कब मनबो उसकी कलाई पर सच में राखी बांधेगी। बचपन में देखी मशीनी गुडिय़ां साकार रूप लेने लगी थी।
उसके इशारों पर दाएं-बाएं चलती थी। रिमोट से बटन दबाता तो मुस्कुराती और इशारा करता तो बैठ जाती।
बस, वो अपने मन से कुछ नहीं करती थी।
जैसी वो बचपन में चाहता था, ठीक वैसे ही तो बन रही थी वो।
उसकी हर बात मानने वाली मनबो।
उसकी कल्पना उसी के मुताबिक साकार ले रही थी। पर फिर भी उसे एक बात मन में अकसर कचोटती रहती।
उसके दोस्तों की बहनों को किसी काम के लिए रिमोट के इशारे की जरूरत नहीं थी। राखी बांधने के लिए किसी भाई को अपनी बहन को आदेश नहीं देना होता था। सब बहनें बाजार से खुद राखी खरीदती और थाली सजाकर प्यार से भाई की कलाई को प्रेम से सजाती।
कल ही तो था रक्षा बंधन।
उस शाम को मां उसके ऑफिस में खाना देने आई थी। उस शाम ही क्यों। ऐसे कितनी हीं शामें थी, जब मां रोहन के लिए टिफिन लेकर उसे खाना खिलाने आ जाती थी।
उसे कहां सुध रहती थी खाने की।
पर उस शाम को रोहन की आंखों की नमी मां से छुपी नहीं।
मां ने जब प्यार से सहलाया तो गोद में सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लग गया था वो।
मां। कल फिर रक्षा बंधन है।
पर देखो ना। ये मनबो मुझसे कोई बात ही नहीं करती।
क्या नहीं सिखाया मैंने इसे। हर उस बात का ध्यान रखती है, जो मैं इसके सिस्टम में डालता हूं। पर ये क्यों नहीं जानती थी, कल इसके लिए सबसे खास दिन है। क्यों ये भी दूसरों की तरह मार्केट नहीं जा सकती। क्या ये कभी मेरे के लिए राखी नहीं खरीदेगी। क्या मैं इसे कहूंगा, तभी मेरी कलाई का सूनापन दूर करेगी।
क्यों मां।
ऐसी मशीन क्यों नहीं बन सकती, जो मेरे दिल की बात सुने। मेरे रिमोट के इशारों की नहीं।
मैं सब दोस्तों को जब बताता हूं कि मैंने अपने के लिए खुद बहन बनाई है, तब अपने चेहरे पर खुशी के भाव दिखाने के लिए अंदर से कितने आंसू निकलते हैं, ये मैं ही जानता हूं।
रोहन, जब हमने गाडिय़ां बनाई तब पैरों की कीमत भूल गए। जब हमने हथियार बनाए तब इंसान की कीमत भूल गए। जब हमने कम्प्यूटर बनाए तब अपनों को भूल गए। मशीनें इंसान के लिए होती है, इंसान मशीनों के लिए नहीं।
वो एक मशीन ही तो थी, जिसने तेरी बहन को दुनिया में आने ही नहीं दिया।
बचपन में मां, क्यों उस सवाल को टाल जाती थी, आज उसका जवाब मां के आंसू दे रहे थे।
अपने बेटे की सूनी कलाई को हाथ में पकड़े मां ने उसके सारे जवाब दे दिए।
मनबो, उन दोनों के पास ही खड़ी थी। हर बात से अनजान।
सिर्फ एक आदेश के इंतजार में शायद। रोहन के रिमोट दबाने के...।

अगर पढ़ें तो जरूर बताएं कैसी लगी कहानी। बिगड़ते लिंगानुपात पर सही तो कहा है। क्या मालूम, हमें आगे चलकर इंसानों की जगह मशीनों से ही काम चलाना पड़े। पर क्या वो इंसान बन पाएंगी।

खैर, बात आगे बढ़ाता हूं। कहानी यहां शेयर करने का मकसद। पिछली पोस्ट में मैंने जिक्र किया था कि कहानी कैसे-कैसे मोढ़ लेती है और कैसे उसकी शुरुआत होती है। इस सब पर हमने पुणे में एक 45 मिनट के लेक्चर में जाना।
ये तो कहानीकार ही अच्छे से बता सकता है कि, वो कैसे-कैसे इतना अच्छा लिख जाते हैं।
अब रश्मि दी का ही ब्लॉग (http://mankapakhi.blogspot.com/2011/04/blog-post.html) देख लो । पता नहीं कैसे लिख जाती हैं इतना अच्छा।
हमारे टीचर संजीव जी ने एक शानदार डेमो दिया।
उन्होंने एक लड़की से कहानी शुरू की। सबसे पहली सीट पर बैठे साथी को कहा, कहानी को एक लाइन में आगे बढ़ाओ।
साथी ने कहा लड़की गूंगी और बहरी है।
इसके बाद दूसरे साथी ने एक लाइन में कहानी को आगे बढ़ाया, लड़की अस्पताल जाती है।
तीसरे ने भी एक लाइन में बताया, अस्पताल बंद है।
इस तरह वो कहानी हम सबके पास से गुजरते हुए एक सुखद अंत तक पहुंचती है।
इस डेमो के पीछे उनका कहना था कि कहानीकार ऐसे ही कहानी नहीं लिख देता। कितने ही पड़ावों से वो गुजरता है। मनबो लिखने से पहले पिंकी ने भी ढेर सारा डिस्कस किया और जमकर मेरा खून पिया (नींद आ रही है अब तक, कमजोर भी लग रहा हूं)।
ओके-ओके-ओके-ओके
लेक्चर लंबा हो रहा है।
तीन महीने बाद आया हूं तो दुकान को पूरी भरकर ही जाऊंगा। अब अगला मौका पता नहीं कब मिलेगा।
टाठां।

Saturday, January 22, 2011

इस तड़प का भी अपना मजा है

जब हम बच्चे थे (वो तो अब भी हैं, कद बढ़ गया बस) तब सोचा करते थे कि यार इन फिल्मवालों के मजे हैं। सारी दुनिया घूमते हैं, ऐश करते हैं। बचपन से फिल्मी खबरें पढऩे का बढ़ा शौक रहा है।
पापा जी ने पूछा, इंदिरा गांधी के कितने बेटे हैं।
इसका जवाब तो उस समय नहीं पता होता था मगर धर्मेंद्र के कितने बच्चे हैं, यह जरूर पता होता था।
पापा जी अखबार की ही दुनिया में हैं। अखबारों के एजेंट हैं, सो हमें दुनियाभर के अखबार पढऩे को मिल जाते। फिल्मों की खबरें पढऩे का इतना चस्का था कि संडे को हम दो-दो सप्लीमेंट मंगाते थे। उस समय केवल संडे को ही चार पेजों का फिल्मी अखबार मिलता था। मैं और मेरी बहन, दोनों यही पन्ना पढऩे का इंतजार करते थे। इसलिए उस दिन झगड़ा न हो, पिताजी दो सप्लीमेंट भेज देते। कहानियां, गॉसिप और फिल्में देख-देखकर जी करता एक नाटक खेला जाए।
और एक दिन मौका मिल गया।
मैंने, अपनी बहन और बहन की सहेली के साथ डाकुओं का एक नाटक खेलना शुरू कर दिया। नाटक पंजाबी में था, और डाकू को लड़की को उठाकर ले जाना था।
जाहिर है, मैं डाकू बना था।
मुझे रौब जमाने में बड़ा मजा आता था।
मैंने रोबिले अंदाज में कहा,
ओ कुडि़ए।
ऐ शीशे उत्ते जदों तक नचेंगी, ओदों तक ही बचेंगी।
इससे पहले कि नाटक गति पकड़ता, मम्मी ने मेरी आवाज सुन ली और उनके हाथों ने गति पकड़ ली। मेरी जो धुनाई हुई, आज तक याद है। अब जब भी मैं फिल्मों की बात करता हूं तो मजाक में घरवाले कह देते हैं, क्यों भूल गया हे, बचपन दी पिटाई।
वैसे फिल्म बनाना तो दूर कैमरा तक आज तक तरीके से ऑपरेट नहीं कर सका हूं। मगर एक तड़प है, जिसका अपना ही मजा है। यही तड़प पूणा तक भी ले गई। पूणा की यादों की दूसरी किस्त का मकसद असल में इसी चुलबुलाहट का जिक्र करना है।
छोटे कद के संजीव दीक्षित। डॉक्यूमेंट्री और मेलोड्रामा का पाठ पढ़ाने में माहिर। इनसे पहले किसी ने भी यह नहीं पूछा कि क्या आप भी फिल्म बनाना चाहते हैं या फिर इस लाइन में ही कुछ तीर, मोला या फिर चाकू-छुरी मारना चाहते हैं।
माय फ्रेंड्स। मैं जानता हूं कि आप सबके दिल में कुछ न कुछ करने की चाहत है, जो यहां तक खींच लाई है। पर क्या कभी आपने इस चाहत की तरफ शिद्दत से एक कदम भी बढ़ाया है। चलो, मैं आज आपको कुछ नहीं पढ़ाऊंगा। क्या आप मुझे एक कहानी, एक नाटक या कुछ भी लघु कथा सुना सकते हैं। उनके इस अप्रत्याशित सवाल पर सभी चुप।
वो समझ गए। और कहा, मैं अगली क्लास में आपसे आपकी कहानी सुनुंगा। आप कुछ भी सुना दें। देश के अलग-अलक कोनों से आप आए हैं। पूणा में भी बहुत कुछ देखा होगा। जो भी आपको अच्छा लगे, वो सुना दें। मगर शर्त यह होगी कि उसे डायरी पर लिखें। क्योंकि बिना डायरी पर लिखी आपकी कल्पनाएं केवल कल्पनाएं ही रह जाएंगी। एक सच जान लीजिए, यह कभी साकार नहीं होती, जब तक कि इन कल्पनाओं को कागज पर उकेरेंगे नहीं।
इसके बाद उन्होंने डॉक्यूमेंट्री और मेलोड्रामा के बारे में कुछ टिप्स दिए और इन पर थोड़ा बहुत बताया।
क्लास खत्म हुई और मेरे दिमाग में छटपटाहट शुरू हो गई।
कौन सी कहानी सुनाऊंगा।
कहीं सबके सामने इज्जत पुरानी दही में पानी मिलकर खट्टी लस्सी जैसी न हो जाए। सबको दिखाने के लिए चेहरे पर कोई तनाव नहीं था, मगर अंदर ही अंदर तो धक-धक हो रही थी। इतना डर तो मम्मी की पिटाई का भी नहीं था।
खैर, रात को हॉस्टल पहुंचे और मैंने फटाफट अपनी डायरी खोल ली। कल्पनाओं को पन्ने पर जो लाना था। ऊटपटांग कहानियां तो पहले भी लिखता रहता हूं, पर डर के कारण किसी को पढ़ाता नहीं हूं। उस रात को अपने मित्र पंकुल जी और योगेश जी के साथ पूणा को केंद्र में रखकर एक स्टोरी सुनाई। कहानी बेहद बंडल थी, मगर उन्होंने आलोचना नहीं की।
अगले दिन सुबह पहली क्लास ही संजीव दीक्षित जी की थी। उन्होंने कल की बात दोहराई और सबसे पूछा, क्या किसी ने कहानी लिखी। अगर लिखी है तो सामने आकर सुनाए। किसी ने कोई जवाब नहीं दिया।
मैंने सोचा, अच्छा है यार। जान बची। पर सच ये नहीं था। मैं चाहता था कि कोई कहानी सुनाए तो कम से कम मुझमें भी हिम्मत आए।
कोई नहीं उठा, कहानी सुनाने के लिए।
इस बार संजीव जी ने जोर देकर कहा, यार सुनाओ। अच्छा। जो भी दिल से कहानी सुनाना चाहता है, वो सुना दें। यकीन मानिए, आपका विश्वास ही बढ़ेगा।
मैंने हिम्मत जुटाई और पहुंच गया अपनी डायरी लेकर।
गुड। संजीव जी ने हिम्मत बढ़ाते हुए कहा। आप मेरी चेयर पर बैठ जाओ और समझो कि मैं प्रोड्यूसर हूं। डरो मत। बस। पिटाई नहीं करूंगा।
सभी मेरी ओर हैरानी से देख रहे थे। मेरी हिम्मत बढऩे की एक वजह थी हिंदी भाषा। संजीव जी हिंदी भाषा में ही हमसे बात कर रहे थे। इससे पहले ज्यादातर सभी टीचर्स ने इंग्लिश में ही बात की और इंग्लिश में सभी ने जवाब दिया। इंग्लिश तो मेरी छोटी बुआ जैसी है, जिससे मेरी कभी नहीं बनी।
मेरी कहानी के बाद दूसरे दो साथियों ने भी डायरी में लिखा हुआ पढ़कर सुनाया। अपनी कहानी जरा बाद में बताता हूं, क्योंकि बोरिंग है और फिर आगे लिखने की हिम्मत नहीं रह जाएगी।

अनुजा ने बेहद भावुक कहानी सुनाई। दिल्ली मेट्रो का एक सच।

दिल्ली वालों की मेट्रो में तकलीफ को उन्होंने बेहद भावुकता से प्रस्तुत किया। मेट्रो में इतनी भीड़ होती है कि आम यात्रियों को बैठने की सीट तो दूर खड़ा होना भी मुश्किल हो जाता है। इसके बाद स्टेशन पर उतरने का एक युद्ध। मेट्रो के दरवाजे फटाफट खुलते और बंद होते हैं। भीड़ इतनी होती है कि ट्रेन पर चढऩे वाले किसी को बाहर तक नहीं निकलने देते। सभी को अंदर जाने की जल्दी होती है। पर वो अंदर से बाहर जाने वालों की तकलीफ नहीं समझते।
कहानी एक युवक की है, जो इंटरव्यू के लिए जा रहा है। समय पर नहीं पहुंचा तो नौकरी नहीं मिलेगी। उसे राजीव चौक पर उतरना है। भीड़ इतनी है कि धक्कामुक्की में उसकी क्रीज की हुई शर्ट बुरी तरह से खराब हो जाती है। बेहद मुश्किल से उसने बैग पकड़ा हुआ है। इधर-उधर हिलने पर यात्रियों का गुस्सा उसे झेलना पड़ता है। जिस नौकरी के लिए वह जा रहा है, वह उसके लिए बेहद जरूरी है। राजीव चौक पर जैसे ही मेट्रो रूकती है, वह चाहकर भी नीचे नहीं उतर पाता। और दरवाजा बंद हो जाता है और मेट्रो आगे चल पड़ती है।
दिल्ली के आधुनिक दिल मेट्रो ने उसे इंटरव्यू में फेल कर दिया।
संजीव जी ने यह कहानी सुनकर मुंबई की लोकल ट्रेनों का जिक्र किया। उन्होंने बताया कि वैसे तो सीट मिलती नहीं। अगर सीट पर कब्जा जमाना हो तो वो चढ़ते ही बैग को सीट की तरफ उछाल देते हैं। मतलब रिस्क लेना पड़ता है। कई जगहों पर तो लोकल ट्रेनों में दबंग लोग चढऩे तक नहीं देते। अगर चढ़ गए तो जबरन उतरने नहीं देते। क्योंकि उन लोगों को कार्ड खेलने में परेशानी होती है।
दूसरी कहानी छत्तीसगढ़ से आए एक साथी की थी। उसने कविता के माध्यम से हिला दिया।
उन्होंने नक्सलवाद पर कुछ शब्द सुनाए। उन्होंने बताया कि नक्सली के हाथों में हथियार हैं और वो शांति की बात कर रहे हैं। सेना के हाथ में भी हथियार हैं, और वो भी शांति की बात कर रहे हैं।
बंदे ने क्या बात कही थी। लूट लिया उसने तो। जरा उसकी बात नक्सली और सरकार सुन ले और इसका अर्थ भी समझ जाए तो शायद फसाद ही खत्म हो जाए।

मेरी कहानी का नाम था टिकट की कीमत

यह
कहानी एक ऐसे बंदे से शुरू होती है, जो मुंबई से जम्मू तक के लिए टिकट रिजर्व करवाता है। वह बेहद गरीब और बेरोजगार है। ट्रेन के त्यौहारी सीजन के आने से कुछ माह पहले ही वो सीट बुक करवा लेता है और निकल पड़ता है यात्रियों की तलाश में। जी हां। यही उसके और परिवार की रोजी-रोटी का जरिया है। ट्रेन में खड़े रहने वाले यात्रियों को वह अपनी सीट मुहैया करवाता है और खुद खड़ा होकर हजारों किलोमीटर लंबा सफर तय करता है। पर उस दिन पूणा में एक खास घटना घटित होती है। विधानसभा चुनाव के परिणाम आ गए हैं और सरकार बनाने के लिए पार्टी को एक आजाद उम्मीदवार का समर्थन हासिल करना है। अगर वो समर्थन नहीं देगा तो सरकार नहीं बनेगी। वो आजाद उम्मीदवार अपनी सीट का करोड़ों में सौदा करता है और सरकार बनवा देता है। उस विधायक को पुलिस सुरक्षा में स्टेशन से ट्रेन में ले जाया जा रहा था। सैकड़ों जवान और नेता उसे पलकों पर बैठाए भगवान जी की पालकी की तरह उठाए ले जा रहे थे। ठीक उसी स्टेशन पर ट्रेन में अपनी सीट बेचने वाला पकड़ा जाता है। टिकट चेकर और पुलिसकर्मी उसे हाथों में रस्सी बांधकर गिरफ्तार कर ले जा रहे हैं। स्टेशन पर सीट बेचने वाले विधायक और उस गरीब पर कैमरा एक जगह फोकस करता है।
यही मैं कहानी खत्म कर देता हूं।
सवाल यह था कि जिस सरकार ने करोड़ों रुपए देकर विधायक खरीदे, क्या वो हमें ईमानदार राज दे सकेगी। विधायक ने करोड़ों रुपए में अपना ईमान बेचा तो उसे इतना मान-सम्मान और उस बेचारे ने खड़ा रहना मंजूर होकर कुछ रुपए लेकर अपने परिवार को पालने के लिए जोखिम उठाया तो उसे क्या मिला। जेल।

मैंने पिछली रात को पंकुल जी और योगेश जी को जो कहानी सुनाई थी, वो कहानी क्लास में नहीं सुनाई। चार किशोर युवाओं पर आधारित पांच मिनट की कहानी से मैं डर गया था। पर इस कहानी को मैंने लिखा है और उसे कभी फुरसत के पलों में ब्लॉग पर भी डाल दूंगा।
पर उसी रात को मैंने यह स्टेशन की कहानी भी बना ली थी, जिसे सुबह डरते-डरते सुना दिया। मुझे तो खुशी मिली कहानी सुनाने में, हालांकि बेहद खराब थी। कंपलीट नहीं थी। हां, तारीफ जरूर की सभी ने। इसके लिए एक बार फिर सभी का तहे दिल से थैंक्स।
इन कहानियों के दौर के बाद संजीव जी ने 'कहानी कैसे-कैसे मोढ़ लेती है और कैसे झट से बदल जाती है। कहां से कहां पहुंच जाती है।' इसका बेहद मजेदार फंडा बताया। इस पर बाद में गौर फरमाएंगे।
कहानियों के बारे में ज्यादा अच्छे से पढऩा है तो रश्मि दी का ब्लॉग पढ़ें। http://mankapakhi.blogspot.com/
मेरा एक मित्र है, उसे भी बड़ी ललक लगी रहती है सिनेमा और कहानियों की। मैंने जब उसे यह बात बताई तो उसने कागज पर लिखना तो नहीं मगर ब्लॉग जरूर बना दिया। अब वह आजकल कविताएं लिखने में मगन है।
तो जी अगर आपको भी यह बीमारी है तो कम्प्यूटर की हार्डडिस्क या फिर डायरी में चुग्गा-पानी डालते रहे और कीबोर्ड/पेन बजाते रहें। कसम से मजा बहुत आएगा।
कम से कम टेंशन तो बनी ही रहेगी। अच्छी या खराब। क्या करें और क्या न करें।
देरी से पोस्ट डालने की आदत से बहुत डांट खा चुका हूं। पर क्या करूं, मजबूर हूं। आलसी जो हूं।
हां, आखिर में एक बात।
मेरे कुछ मित्रों को यह टॉपिक पसंद नहीं है। उनसे मैं माफी चाहता हूं। इन संस्मरण से फ्री होते ही कुछ अन्य चीजें लिख पाऊंगा।
ओके
टाठां।