Tuesday, September 29, 2009

गुरु दा बाग़

वैसे तो मैं सभी धर्मो को ईश्वर के खुबसूरत रंग ही मानता हूँ मगर सिखिज्म से जाने कैसी आत्मीयता जुडी है. शायद ये दुनिया की सबसे बड़ी एंजियो भी है, जो बिना किसी सहायता के समाज के लिए बहुत कुछ करती है. खैर ये तो मेरा निजी मामला है...मगर मैं आज कुछ ख़ास शेएर करना चाहता हूँ...मैं अहिंसा पर कुछ सर्च कर रहा था, उसी दौरान मुझे कुछ पढ़ने को मिला, जिसे यहाँ लिखने में खुद को रोक नहीं सका...
देश की आजादी में अपना योगदान देने वाले सभी सिख एक लड़ाई और भी लड़ रहे थे. गुरद्वारो की रक्षा और सुधार के लिए भी एक जंग चल रही थी. उस समय गुरूद्वारे महंतो के कब्जे में थे. गुरुद्वारों का प्रबंध अपने हाथो में लेने के लिए शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी स्थापित की गयी. कही कही के महंतो ने कमेटी की बात मान ली और प्रबंध सौंप दिया. ब्रिटिश सरकार भी इस बात पर विचार करने लगी की ये काम कानूनन किया जाये और कानून बनाकर प्रबंध कमेटियों को दे दिया जाये. वहीँ अकालियों से नाराज होकर महंत जोर जबरदस्ती करने लगे थे. एक गुरूद्वारे में तो महंत ने बहुत अकालियों को बेहद करुरता से मरवा दिया था. इस तरह की एक घटना ननकाना साहब गुरूद्वारे में भी हो गयी थी. इससे अकाली भी क्रोध में आ गए. इस समस्या का हल निकालने के लिए अमृतसर में अकालियों ने गाँधी जी का सुझाया अहिंसा मंत्र अपना लिया. हालाँकि अहिंसा नीति सिखों के लिए नयी नहीं थी, मुस्लिम काल में भी सिखों ने इस निति को ग्रहण किया था और बहुत दुःख सहे थे.
अमृतसर से कुछ दूर है गुरु दा बाग़. यहाँ एक गुरुद्वारा है, जो महंत के कब्जे में था. अकालियों ने इसे अपने हाथो में ले लिया. अकालियों और महंत में तय हुआ की गुरुद्वारा अकालियों के हाथ में रहे और मठ महंत के कब्जे में. वहां कुछ जमीन थी, जिस पर बबूल का जंगल था. आगे चलकर आपस में फिर विवाद हो गया. शिरोमणि कमेटी की और से गुरूद्वारे का प्रबंध हो रहा था. ग्रन्थ साहब की सेवा के लिए सेवक थे. गुरुद्वारों में अक्सर लंगर लगता है. यहाँ भी लंगर लगाया जाता था. लंगर बनाने के लिए बबूल के पेड़ काट लिए जाते. महंत ने इस पर रोक लगायी और पुलिस बुला ली. सरकार की ओर से अकालियों को जंगल में जाने से रोक दिया गया. अकालियों ने सत्याग्रह करने की ठान ली. वे जंगल में पेड़ काटने जाते, पुलिस रोकती; न रुकने पर पहले तो गिरफ्तार कर लेती पर बाद में मारपीट कर भगाया जाने लगा. जो अकाली वहा जाता, उसे बुरी तरह पीटा जाता. सरकार ने भी वहा जाने के रास्ते पर कुछ दुरी से ही रोक लगा दी. अकालियों में बहुत जोश था. वे अमृतसर के अकाल तख्त में जाते, अहिंसा की सोगंध खाते और जंगल की और निकल जाते. जब रास्ता खुला होता, गुरूद्वारे में आकर रुकते. वहा से जंगल में जाते और पिटे जाते. जब रास्ता रोक दिया गया तो उनके जथे रस्ते में रोके और पीटे जाते. इतनी बुरी तरह मारते की वो बेहोश तक हो जाते. इसका शोर सारे देश में फ़ैल गया. दूर दूर से लोग वहा का सत्याग्रह देखने आते. कांग्रेस की बड़ी कमेटी भी वहां पहुंची. कमेटी ने देखा, तगडे सिख हाथ जोड़ कर आगे जाते, दूसरी तरफ से लोहे और पीतल से बनी लाठिया लिए पुलिस के सिपाही अकालियों को बुरी तरह मारने लगे. तब तक मारा जब तक सब बेहोश नहीं हो गए. यहाँ तक की केश तक पकड़ कर घसीटा गया. लोग यह देखने के लिए जमा होते, एक भी आदमी पुलिस पर हाथ नहीं उठाता था. अहिंसा का जवलंत उदहारण पूरे देश के सामने आया. हजारो लोग गिरफ्तार हुए. अकालियों की हिम्मत और शक्ति जबरदस्त थी. जो शक्ति मजबूत जवान बिना हाथ उठाये दिखा सके, उसे कोई भी शक्ति दबा नहीं सकती. सरकार की और से कोई रास्ता नहीं निकला. आखिर में सर गंगाराम ने महंत से जमीन लेकर अकालियों को दे दी. सत्याग्रह की उपयोगिता और इसमें निहित सम्भावना साबित हो गयी. इसका श्रेय सिखों को है. उन्होंने इसे अपनी सत्य निष्ठा और शक्ति से दिखला दिया..
(देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद जी की आत्मकथा से साभार)

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