Sunday, December 12, 2010

दस का पहला दम


हेडिंग से समझ गए होंगे कि दस से कुछ न कुछ लिंक तो होगा। ठीक समझ रहे हैं आप। खैर, इसकी चर्चा जरा बाद में करते हैं।
सबसे पहले आपको लेकर चलते हैं पुणे नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया के कांफ्रेंस कम प्रीमियर बॉक्स में। यहां फिल्मों के शो भी होते हैं और क्लास भी लगती है।
पहली मुलाकात हुई एनएफएआई के पूर्व निदेशक और रिटायर्ड प्रो. सुरेश छाबडिय़ा सर से। फिल्मों को बेहद बारीकी से पढऩे वाले छाबडिय़ा सर से मिलने से पूर्व आप सोच नहीं सकते कि फिल्मों से कोई इतना प्रेम भी कर सकता है। पर हां, एक बात का ख्याल रखिएगा, उनके सामने सिंह इज किंग जैसी मसाला फिल्म की चर्चा न करें तो ठीक रहेगा। वो भले ही बुलंद आवाज में नहीं कहते, मगर मैं उनकी भावनाओं को दुष्यंत जी के इन शब्दों में बुदबुदा रहा था,

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

क्या है फिल्म। क्या सोचते हैं आप?
मेरे लिए बेहद आसान जवाब था, मनोरंजन का जरिया (अच्छा हुआ बोला नहीं)
मेरे मेरठ के मित्र पंकुल शर्मा ने जब डेविड धवन की चर्चा की तो वो एकदम से हैरान हो गए।
मुझे लगा, लो बेटा- खुशवंत सिंह जी को पार्टी में बुलाकर ओनली वेज खिलाने और पानी पिलाने वाली बात कर दी (एक दिन खुशवंत जी को किसी ने पार्टी में बुलाया और चिकन-वाइन सर्व नहीं की। उसके बाद उन्होंने उनकी पार्टी में जाना बंद कर दिया, ऐसा उन्होंने अपने एक लेख में बताया था। अब आप समझ सकते हैं कि मैं सोच रहा था कि बात बिगड़ी और क्लास की छुट्टी)
पर अल्लाह की मेहरबानी!
उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, प्लीस आस्क दिस क्वाशच्न टू अनदर टीचर।
उनका मंतव्य सभी समझ चुके थे, इसलिए अब चुप रहे।
डायरेक्टर ने क्या थीम लेकर फिल्म बनाई है, एक तिनका भी अगर हिलता है तो क्यों हिलता है। बंदे ने चालीस-पचास करोड़ रुपए लगा दिए और हमने मल्टीप्लैक्स में पॉपकार्न और पेप्सी गले में उतारी, डकार लेकर रिजल्ट बता दिया, फिल्म बढिय़ा है या घटिया (यहां फिल्म समीक्षकों की वाट लगा रहे हैं), छाबडिय़ा जी से कुछ इस स्टाइल में रूबरू हुए हम।
लुक एट द लैपर्ड (पर्दे पर फिल्म दिखाई... करीब पांच मिनट तक हवाएं चल रही है और साथ ही कुछ आड़ी-तिरछी प्रतिमाएं नजर आ रही हैं। इसी सीन में राजपरिवार का तनाव भी दिखाया जा रहा है)
तो क्या देखा आपने, छाबडिय़ा जी का सवाल था यह हम सबके लिए।
लिसन, ये तो लगा ही होगा कि कुछ न कुछ तनाव है। डायरेक्टर ने कितनी चतुराई से हवाओं का प्रयोग किया है। ये हवाएं भी तनाव का अहसास करवाते हुए हमें छू रही हैं। फिर ये प्रतिमाओं की तस्वीरें। कितनी बेढंगी हैं। यह भी कह रही है कुछ न कुछ गड़बड़ है। राजपरिवार के बीच जो दिख रहा है, वह भी बता रहा है कुछ तो दिक्कत है।
क्या आपने फील किया यह सब।
ओए- यार ये क्या था। अच्छा हुआ, सर ने मुझसे नहीं पूछा कि चलो बताओ तुमने क्या फील किया इस सीन के बारे में। मेरे सिर में दर्द हो चुका था ये सीन देखकर। जब उन्होंने इसे एक्सप्लेन किया तो मुंह खुला का खुला रह गया।
अगला सीन उन्होंने दिखाया, बॉम्बे फिल्म का।
(तू ही रे...गीत में मनीषा कोइराला घर से प्रेमी को मिलने के लिए दौड़ी चली आ रही है। प्रेमी समुद्र तट पर उसका इंतजार कर रहा है। तेज हवाएं चल रही हैं और उसका पल्लू भी एक जगह प्रतिमा में फंस जाता है। बारिश की बूंदे और एक-एक चीज बेहद खूबसूरती से पिरोई गई थी, ऐसा मैंने पहली बार वॉच किया)
सीन खत्म होते ही, फिर छाबडिय़ा सर ने पूछा-क्या देखा।
इस बार मैंने कहा- हाए कम्बख्त जालिम हवाएं। इतनी भी क्या बेरुखी पल्लू तक पकड़ लिया (अब सोचता हूं, क्या बकवास बोल दिया)
छाबडिय़ा सर से हमने जापान, ईरान और अन्य मुल्कों में बनने वाली क्लासिक फिल्मों के बारे में जाना। कई बार तो मन बोर हो जाता, मगर अब लगता है कि वाकैयी में वो सही है।
हम आम जीवन की तरह ड्रेसिंग रूम देखकर बंदे के प्रति नजरिया बना लेते हैं। घर के अंदर जाएंगे ही नहीं तो असलियत कैसे पता चलेगी। यह बात फिल्म पर भी लागू होती है। फिल्म की आत्मा को समझना भी जरूरी है। ये मैंने जाना इस वर्कशॉप से और खासकर रश्मि दीदी का ब्लॉग पढ़कर।
रिलेक्स फ्रेंड्स। आई नो, आप बोर हो रहे हैं। अगली बार आपको समर नखाटे सर से मिलवाऊंगा।
नखाटे सर दिखने में जितने नाटे हैं, उतने ही खतरनाक भी हैं। पहली क्लास में उनका पहला डॉयलॉग

मेरे कर्ण अर्जुन आएंगे, मेरे कर्ण अर्जुन आएंगे
एक मिनट- ये हो क्या रहा है।

उनके साथ बिताए करीब पांच घंटे बेहद रोमांचक और मस्तीभरे रहे।

जाते-जाते छाबडिय़ा सर के लिए एक बार फिर दुष्यंत जी के शब्द गुनगुना रहा हूं...

उस नई कविता पे मरती नहीं हैं लड़कियां

इसलिए इस अखाड़े में नित गजल गाता हूं मैं!

...और हां, वर्कशॉप में शामिल मित्रों में सबसे ज्यादा प्रभावित किया मुझे अनुजा, जलपति, मारुफ और पंकुल ने। इनकी भी बात होगी, मगर अगली बार।
रूको यार, हेडिंग का मतलब तो समझ लो। अगर वहीं बता दिया होता तो शायद आप आगे ही निकल जाते। दस दिन की वर्कशॉप थी, तो दस पोस्ट तक पकाने वाला हूं । अगली बार सच्ची में सच्ची, मसालेदार क्लास के बारे में चर्चा करूंगा।
ओके टाठां (टाटा की तो वाट लगेली है ना)

Saturday, October 30, 2010

बाबा मुझे माफ करो

मेरी यह पोस्ट शायद कुछ लोगों को नाराज कर सकती है। हो सकता है कि कुछ लानते-मलानतें भी भेजें। पर मैं खुद को रोक नहीं सका हूं। सोचा तो यह था कि पुणे से लौटते ही अच्छे-अच्छे संस्मरण लिखूंगा और ढेर सारी बातें शेयर करूंगा। पर वापस लौटते समय लिए गए एक निर्णय से काफी दुखी हूं।
बात 24 अक्टूबर की है। इसी दिन रात को मनमाड़ से दिल्ली तक मेरी ट्रेन थी। सोचा दिनभर खाली क्या करेंगे। शनि सिंगणापुर और शिरडी में घूम आते हैं (दर्शनों की बात तो बाद में ही सोचते हैं)। पिछले 14 दिनों की थकान को साइड में रखकर भारी बैग उठाए मैं अपने मेरठ के एक मित्र के साथ चलने को तैयार हो गया। बस और ऑटो से धक्के खाते हुए सबसे पहले शनिदेव के द्वारे पहुंचे। समझिए की शनिदेव की कृपा शुरू हो गई। ऑटो वाले ने शनिदेव मंदिर से दूर एक मैदान में छोड़ दिया। यहां हमारी तरह हजारों लोग आए हुए थे। हमें देखते ही एक दुकानदार दौड़ा आया और हमारा सामान अपनी दुकान में रखवा दिया। हम तो चाहते ही यही थे कि कहीं सामान रखने की जगह मिल जाए। फिर जाएंगे दर्शन करने। पर सामान रखवाने की कीमत मुझे चार सौ रुपए देकर चुकानी पड़ी। बदले में क्या मिला, दो-चार फोटो और दो सौ ग्राम सरसो का तेल। बंदे ने बताया कि ये तेल शनिदेव को चढ़ाना है। इससे वो खुश होते हैं।
मैंने पूछा दादा (यहां रहते-रहते हर किसी को दादा कहने की आदत हो गई), हम तो अपने शहर में तेल नहीं लेकर जाते। अगर लें भी जाएं तो एक कटोरी चढ़ा देते हैं। हम इतना तेल ले जाकर क्या करेंगे।
उसने हैरान होते हुए कहा, ये देखिए बाऊजी। लोग पांच-पांच लीटर तेल लेकर जा रहे हैं और आप दो सौ ग्राम तेल चढ़ाने में हिचक रहे हैं।
मैंने ज्यादा बहस नहीं की और स्नान करके रीति अनुसार धोती पहनकर चल दिया शनिदेव के द्वारे।
लंबी लाइन। चलते-चलते पैर थक गए। फर्श पर तेल ही तेल था। बुरी तरह टूट चुका था। वो तो अच्छा हुआ गिरा नहीं। सोच रहा था, पानीपत से क्या मैं यह तेल चढ़ाने यहां आया हूं। क्या कर रहा हूं मैं...।
आखिर में शनिशीला के नजदीक पहुंच ही गया। हजारों हजार लोग तेल चढ़ाने में जुटे हुए थे। हम सुबह ग्यारह बजे पहुंच गए थे वहां। सुबह से इतनी भीड़ थी तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि दिनभर में लाखों लीटर सरसों का तेल चढ़ जाता होगा। जिस देश में चालीस करोड़ जनता बीस रुपए रोजाना से कम पर गुजारा करती है, उस देश के देवता लाखों लीटर तेल पीकर संतुष्ट होते हैं।
मेरा मूड खराब हो चुका था और मैंने आधे मन से शीला पर थोड़ा तेल चढ़ाया और पैकेट वहीं रखकर आगे निकल आया।
जाते-जाते तय कर लिया, दोबारा कम से कम तेल चढ़ाने तो नहीं आऊंगा।
बाहर आकर उसी दुकान पर कपड़े बदले और निकल चले शिरडी। सवारियों से भरी निजी गाड़ी में हम भी फेवीकोल की तरह चिपक कर बैठ गए। गाड़ी वाले ने बताया, एक घंटे तक पहुंच जाएंगे शिरडी। मगर हाय री किस्मत। थोड़ी दूर चलते ही दिखाई दिया कि आरटीओ का छापा था। गाड़ी वाले ने तुरंत स्टेयरिंग घुमाया और पहिए कच्चे रास्ते पर दौडऩे लगे। गाड़ी उछलती-कूदती कच्चे रास्ते पर दौड़ती हुई तीन घंटे बाद हमें शिरडी तक आखिर ले ही गई।
बीच में मन ही मन डॉयलॉग मार चुका था, उम्मीदों का चिराग जलाए रखना...। कभी तो रात होगी।
खैर, शाम से पूर्व हम शिरडी पहुंच गए। यहां उतरते ही सिंगणापुर की तरह एक बंदा आया और हमारा सामान रखवाने की बात करने लगा। मगर इस बार हमने सामान दुकान पर नहीं बल्कि क्लॉक रूम में रखवाया। सात रुपए का टिकट कटवाया। वो बंदा हमें अपनी दुकान पर ले गया। यहां पर भी डेढ़ सौ रुपए की पर्ची कटवाई और प्रसाद का थैला लेकर हम चल दिए दर्शन करने।
जाहिर है तन टूट चुका था और मन भी आधा फूट चुका था। फिर भी अपने मित्र के साथ कदमताल करते हुए चलते रहे। मेरा मित्र काफी धार्मिक ह्रदय का बंदा है। शनि मंदिर में भी जय शनिदेव जय शनिदेव करते आंखें मूंदे हुए चलता रहा। यहां भी साईं भक्ति में कंपलीट डूबा हुआ था। मैं भी ईश्वर को मानता हूं, पर आवाज पता नहीं कहां गायब हो जाती है।
थोड़ी आगे पहुंचे ही थे कि अंदर जाने का रास्ता दिखाई दिया। इससे पहले कि अंदर जाते, सिक्योरिटी गार्ड ने रोक लिया।
भाई कहां जा रहे हो। यहां वीआईपी पास मिलते हैं। अगर आपको पास लेकर दर्शन करना है तो जाओ, नहीं तो आगे से दर्शन करो।
मैं चौक उठा। दादा ये क्या माजरा है।
भाई साहब, सौ रुपए देकर पास मिलता है। पास लोगे तो पंद्रह मिनट में नंबर आ जाएगा और नहीं लोगे तो डेढ़ घंटे में नंबर आएगा।
रोम-रोम तो कह रहा था कि सौ रुपए दो और दर्शन करके चलते बनो।
पर अगले ही पल यह ख्याल मन से निकल गया। शनि मंदिर से जो खट्टा अनुभव लेकर चला था, यहां भी दिल और टूट गया।
सौ रुपए देकर साई बाबा के दर्शन। क्यों? जिसके पास सौ रुपए नहीं है वो बेचारा लाइन में लगा रहे। तड़पता रहे दर्शनों को। वाह रे साई बाबा। यहां भी अमीरों की सुनवाई।
मन तो किया यहीं से वापस लौट जाऊं। पर नहीं कर सका। वही हुआ जो सिक्योरिटी गार्ड ने बताया था। बिना पास के लाइनों में लगे हुए भक्तों का नंबर डेढ़ घंटे में आया जबकि पास लेकर आए भक्त हमारे सामने से विशेष गेट खुलवाकर दर्शन करके चलते बने।
मन ही मन गीत गाने लगा...

जरा मुल्क के रहबराओं को बुलाओ

ये कूचें ये गलियां ये मंजर दिखाओ

जिन्हें नाज है हिंद पर उनको लाओ

जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं?

कहां हैं, कहां हैं, कहां हैं?

मेरे साथ ही कुछ बुजुर्ग भी चल रहे थे। मन में ख्याल आया कि अगर वीआईपी पास बनाना ही है तो इन बुजुर्गों का फ्री क्यों नहीं बनाते। ये भी किया जा सकता है जो बच्चे अपने माता-पिता को लेकर आएं, उनका पास फ्री बनाया जाएगा। कम से कम पास के ही बहाने बच्चे अपने माता-पिता को लेकर तो आ सकते हैं।
मरते-मरते किसी तरह दर्शन किए और बाहर निकले। मैं आगे चल रहा था अपने मित्र से बात करते हुए। बात करते-करते मैं तो आगे बढ़ गया, जब पीछे मुढ़कर देखा तो मित्र था ही नहीं। पीछे गया तो मित्र महोदय एक मंदिर में साष्टांग प्रणाम किए हुए लेटे हुए थे। मैं बाहर ही बैठ गया और मन ही मन प्रार्थना की कि मुझ दुष्ट का तो जो होगा सो होगा, पर मेरे मित्र को साई बाबा जरूर कामयाबी देना।
जाते-जाते यहां भी तय किया, दोबारा नहीं आऊंगा। कम से कम जब तक ये सौ रुपए के वीआईपी पास दर्शन खत्म नहीं होते।
ह्रदय इतना टूट चुका था कि तय किया कि घर जाकर प्रसाद भी नहीं बांटूंगा। क्यों बांटू प्रसाद। इसका मेरे अंतर्मन ने कोई जवाब नहीं दिया।
आप निराश मत होइए और मेरे शब्दों से कोई धारणा भी मत बनाइएगा। अगली पोस्ट में अच्छी-अच्छी बातें बताऊंगा। मैं 10 अक्टूबर से 23 अक्टूबर तक पुणे रहा। यहां एनएफएआई और एफटीआई की तरफ से सीने कोरसपोंडेट कोर्स का आयोजन किया गया था। अगली पोस्ट में इनका जिक्र करूंगा।

Wednesday, October 6, 2010

एक मौत और छुट्टी...।

शादीशुदा परिवार पर हास्यविनोद से भरे लेख को कंपलीट कर मैं ब्लॉग पर डालने की तैयारी कर रहा था। तभी मेरी सिस्टर ने स्कूटी का हॉर्न दिया। उसके जल्दी आने पर चौक गया और गेट खोलकर कॉलेज से जल्दी आने का कारण पूछा।
कॉलेज के टीचर के युवा बेटे की अक्समात मौत होने पर शोकस्वरूप छुट्टी कर दी गई।
फिर तो सारे टीचर संस्कार में गए होंगे। तू क्यों नहीं गई। कितने बजे होगी अंत्येष्टि। चल फिर अब साथ ही चल पड़ेंगे, मैंने उससे पूछा।
कोई फायदा नहीं है। वहां कोई नहीं जा रहा। कॉलेज में छुट्टी हो गई, तो सारे घर या इधर-उधर चले गए। फिर मैं वहां क्या करती। जब हम रजिस्टर पर साइन करने जा रहे थे, उसी समय सारे टीचर्स बाहर खड़े थे।
एक टीचर कह रहे थे, रात को ठीक से सो नहीं सका। फिल्म देखने चले गए थे। चलो अच्छा ही हुआ छुट्टी मिल गई। थकावट दूर हो जाएगी। इतने में दूसरे ने कहा, कॉलेज में स्टूडेंट पढ़ते तो हैं नहीं। फिर हम क्यों सिरदर्द बढ़ाएं। छुट्टी हो ही गई है। चलो इसी बहाने मैकडी पर बर्गर खाने चलते हैं।
कॉलेज में सबको पता था, टीचर के बेटे की मौत हो गई है। पर एक मैडम अपनी सगाई की खुशी में मिठाई का डिब्बा लिए घूम रही थी। साथ ही चहक रही थी, क्योंकि इस छुट्टी से उसे अपने होने वाले जीवनसाथी के साथ घूमने का मौका जो मिल गया था। कुछ ने अवसर का 'लाभ' उठाया और मॉल में फिल्म देखने निकल गए। एक क्लर्क बोला, रजिस्टर पर लिखते-लिखते थक गया हूं। जरा सा आराम नहीं मिलता। ओए, छोटू चाय लेकर आ जरा। चाय पीकर घर चलते हैं।
ये तो किसी की मौत पर सेलिब्रेशन मना रहे हैं।
उसका एक-एक शब्द मुझे अंदर तक झकझोर गया। ये सब मैं यहां इसलिए बता रहा हूं क्योंकि ये किसी अशिक्षित या ऐरे-गैरी जगह की बात नहीं है। शिक्षा के मंदिर में जब किसी की मौत को छुट्टी का नाम देकर जश्न मनाया जाएगा, तब उस समाज की संवेदनाएं कैसी होंगी, ये बताने की जरूरत नहीं है। ...और कुछ लिखने की हिम्मत भी नहीं हो रही अब।
कमलेश्वर जी ने जब 'दिल्ली की एक मौत' कहानी लिखी थी, उस समय तक शायद हृदय के किसी कोने में भावनाएं जीवित थी, मगर आज तो वो भी मर चुकी हैं। क्योंकि आज कोई किसी के आखिरी सफर में भी साथ नहीं देता। क्योंकि एक मौत हमारे लिए छुट्टी जो लेकर आती है।

बड़े कमाल का है ये दौर
दूसरों के आंसूओं में
ढूंढते हैं अपनी खुशियां
दुख देकर चैन तो पहले भी हमने लूटा
अब झूठी बूंदे तक नहीं बहती
ये तरक्की, कोरापन है या कुछ और

बड़े कमाल का है ये दौर।

Friday, September 24, 2010

भाप्पा-भाप्पा कहंदे सी किने,. खुश रहंदे सी

कॉमनवेल्थ, अयोध्या अध्याय और बाढ़ के बीच पता नहीं क्यों इन दिनों हर जगह मुझे मिया-बीबी के किस्से बहुत पढऩे को मिल रहे हैं। इतने दिनों से ब्लॉग नहीं लिखा। सोचा छूटे पंछी (बैचलर ) की तरह इधर उधर के ब्लॉग पर ही विचरण कर लूं। तो यहां भी रश्मि जी और वंदना जी के लेख पढऩे को मिल गए, जो पारिवारिक रिश्तों और उलझनों पर विचार सांझा कर रहे थे। मनोरंजक चैनल वाले हर जगह जोडिय़ां बनाने और जोडिय़ा तोडऩे पर तुले हुए हैं। हमारे घर पर भी बस यही चर्चा छिड़ी रहती है (समझिए कि रोज बचते फिरते हैं या बचने का नाटक करते हैं) । एक दिन मेरी सिस्टर ने बेगम और शौहर के बीच का फर्क पूछ लिया। जवाब मिला, बेगम वो जिसे कोई गम न हो और शौहर वो, जिसकी विवाह के बाद शौ हर ली गई हो। ...चलो जाने दो, बात लंबी क्यों बढ़ाएं। हमने सोचा क्यों न आपको आपको एक छोटी सी फैमिली से मिलवा दें। मैंने अपनी कलम और डायरी उठाई और पहुंच गए अपने मित्र के घर शादी शुदा जीवन के अनुभव जानने...।

इस फैमिली में दो भाई हैं, दोनों शादीशुदा। दोनों के दो-दो बच्चे। खुदा की रहमत से दोनों के पास एक-एक लड़का और एक-एक लड़की है। बच्चों की उम्र पांच साल से ऊपर नहीं हैं। यानी कुर्बान हुए अभी छह से सात साल हुए हैं। भाइयों के मम्मी-पापा भी साथ रहते हैं और सबसे खास बात दोनों की दादी का आशीर्वाद भी पूरे परिवार पर हैं, जो टिपीकल हिंदी फिल्मों की तरह बहुओं और बेटियों पर सवार रहती हैं और बेटों को मलाई खिलाने के लिए भागी फिरती हैं। मम्मी जरा कंजूस और पिता खुद को किसी रियासत के राजा समझते हैं और बादशाहों की तरह उड़ाते हैं।

सौणां परिवार मोतियां वरगा

कुनबा सारा मैं मैं मैं करदा

कॉमेडी ते इमोशन दा रोज लगदा तड़का

चॉक ले रबा, हुण नहीं जीन नू जी करदा

परिचय काफी है शायद...तो अब कहानी आगे बढ़ाते हैं। रिबन का डुप्लीकेट गॉगल लगाए बिना नॉक किए हम घुस गए घर में (खास यार जो है)।
'वे मार जानयां, कित्थे मुंह चकया ही।' दादी की आवाज सुनते हैं मैंने कांपते हुए कहा, 'मैं वां तेजेंद्र। किशनू दा यार।'
'किशनू ने तवानू सिर चाढय़ा होया हें दिन नहीं वेखदे रात नहीं सोचदे..आ जांदे ने तांग करन।'
इतने में दादी की आवाज सुनकर किशनू बाहर निकला और बोला, 'झाई, तेनु चैन नहीं आंदा। ऐ तेजू हे...। चुप कारके अंदर बैठी रहया कर।'
'आ यार, अंदर चल। तू बुरा न मनी। झाई दी ते आदत हैगी', किशनू ने मुझे समझाते हुए कहा।
कोई नहीं यार। बुजुर्ग हे, डोंट वरी। मैंने गॉगल सिर पर चढ़ाते हुए कहा।
गॉगल नू जेब एच पा लै या मेनू दे दे। मैं संभाल लांगा, किशनू ने गंभीरता से कहा।
मैंने इग्नोर करते हुए कहा 'छोड़ ना यार, महंगा गॉगल है तू गवा देगा।' उस समय मैं किशू का मंतव्य नहीं समझ सका था।
अंदर बेड पर बैठते ही डायरी और पेन निकालकर रख दिया। शादी शुदा परिवार का अनुभव जो जानना था। किशनू को आने का मंतव्य बताने से पहले मैंने पानी मांगा।
इतने में जाने कैसे किशनू के बेटे ने सिर पर से अचानक गॉगल उतार लिया और थोड़ी दूर भाग गया।
बेटा, ऐसा नहीं करते। चाचू का गॉगल वापस कर दो..., किशनू ने बेटे सीमू को पुचकारा।
इससे पहले कि किशू की पुकार सीमू सुनता, कड़ाक की आवाज आई और गॉगल कागज की तरह दो फाड़ हो गया।
गॉगल नहीं मेरा दिल तार-तार हो गया। शाम को ही गर्लफ्रेंड से मिलने जाना था। महीने के आखिरी दिनों में जेब काटकर रिबन का डुप्लीकेट गॉगल चार सौ रुपए में खरीदा था।
हाय मेरा गॉगल...अंदर ही अंदर मैं दहाड़ पड़ा।
पर कर भी क्या सकता था। किशनू ने पहले ही समझा दिया, तब तक तो देर हो चुकी थी।
खैर सोचा, दुनिया को शादीशुदा परिवार की कहानी बताने के लिए रिबन का गॉगल कुर्बान।
मैं अंदर ही अंदर रोते हुए बेड से उठकर कुर्सी पर बैठ गया। इतने में किशू के छोटे भाई रेलू की बेटी हाथ में गिलास लेकर आई।
'ताचू...ताचू...मम्मी ने कहा है ये पी लो।'
इससे पहले कि मैं पानी पीता, बेटी भारी गिलास संभाल नहीं पाई और पानी सीधे मेरी पेंट पर जा गिरा।
हे भगवान...। मालूम मैं क्यों चिल्लाया।
क्योंकि ये पानी नहीं सलाइस थी, जिसका दाग कम से कम बिना धुले उतरने वाला नहीं था।
मेरी प्यारी जींस।
इस जींस को सूखने में भी दो दिन लगने थे, मौसम जो ठंडा था।
हाय बिना गॉगल और प्यारी जींस के कैसे मिलूंगा गर्लफ्रेंड से।
कितनी मिन्नते करके उसे शाम को मिलने के लिए राजी किया था।
एक बार तो मन हुआ नहीं लेना कोई इंटरव्यू। पर फिर दिल पर पहाड़ रख लिया।
आते ही झाई की डांट खा चुका था, गॉगल तुड़वा लिया और जींस को धुलवा बैठा। फुटी किस्मत या किशनू की अच्छा दिन। जो उल्टा उसके साथ होता था उसके अपने घर में, आज वो मेरे साथ हो रहा था।

मैंने खुद को संभाला और किशनू को कहा, 'यार किन्नी रौनक हे तेरी घार विच। बच्चे एधर-उधर खेड्दे पए ने। बरझाइयां किचन विच कुज न कुज बना रहियां ने। तू यार बाहर बोर्ड क्यों नहीं लगा देंदा। सौ रुपए दी टिकट लओ ते ऐनी सौणी रौनक वेखन दा मौका पाओ', मैंने दार्शनिक अंदाज में कहा।
'तेजू तू मेरे कोलो सौ रुपए ले जा ते ऐ रौनका बाहर ले जा।'
इस बार मैं उसका भाव ताड़ गया और कुछ नहीं बोला।
खैर मैंने कहा, 'यार मैं तेरे कोल किसी खास काम नाल आया सी। मैं शादी शुदा परिवार ते कुज लिखना है। ऐ समझ ले, सारे नेता-डकैत-भ्रष्टाचारी-वेले छाड के मैं एक भरे पुरे परिवार दा इंटरव्यू लेना है। तू अपनी दादी, मम्मी, डैडी, बच्चे, भाई और बरझाई नू बुला लैं। मैं सारया नाल ओनादे अनुभव साझा करने नै।'
'यार, तू इंटरव्यू लेन आया हे या, साड्ढे घार ओबामा-ओसामा नू मिलवान आया हे। सारे कट्ठे बह गए ना ते ऐ दो मंजिले मकान नू ढहन लगे देर नहीं लगनी', किशनू ने गुस्से में कहा।
'यार तू चिंता क्यों करदा हे। सारया नू मैं संभाल लांगा। वड्ढा पत्रकार हेगा (थोड़ा जानबूझकर रौबा जमाया) सारी दुनिया नू वेखना वां। फेर तेरा परिवार की चीज हे', मैंने टूटे गॉगल पर प्रेमभरी नजरें डालते हुए कहा।
'तेरी वजह नाल शायद लोकां दा घार वास जाएं। कोई तेरे कोलो प्रेरणा लेके तेरे जैवा रौनकां वंडदा परिवार ही पा ले। सोच यार, सोच तेरे भाई दे लेख नाल कोई कमाल ही न हो जाए', मैंने फिर जोर मारा।
'वेख, मैंनू कुज नहीं पता। जे तू मेरे नाल कोशिश करे ते सारयां नू कट्ठा कर देना वां। पर बाकि इंटरव्यू लेन दी जिम्मेदारी तेरी।' किशनू ने सहमते हुए हामी भर तो दी पर मैं अब डर चुका था। फिर भी इंटरव्यू तो लेना ही था।
'पर मेरी इक गल पत्थर दी लकीर हैगी', किशनू ने कहा।
मैंने पूछा वो क्या।
भाप्पा-भाप्पा कहंदे सी (पापा-पापा कहते थे)

किने खुश रहंदे सी (कितने खुश रहते थे)

भाप्पा-भाप्पा कवाने हां (पापा-पापा कहलवाते हैं)

किने दुख पाने हां (कितने दुख पाते हैं)

किशनू के इस डॉयलॉग को मैंने हंसी में उड़ा दिया।
यार मैं जरा जींस बदलकर आना। तब तक तू सारया नू बुला।
जब तक मैं पेंट बदलकर आता हूं, तब तक आप भी इंटरव्यू का इंतजार करें।

Monday, August 2, 2010

सबकुछ प्री प्लांड है

देशभर में कॉमवेल्थ गेम्स को लेकर हल्ला मचा हुआ है। विपक्षी पार्टियां घोटालों का आरोप लगाते हुए दिल्ली बंद तक करने पर तुली हैं। इसके बावजूद हमारे आयोजन समिति के चौधरियों, ठेकेदारों, मालियों, तकनीशियनों और छोटी-छोटी फर्मों से लेकर सबसे बड़े चौधरी धनमाडी साहब के चेहरे पर कोई शिकन नहीं है। ऐसा होता है किसी भी महान कार्य को करने से पूर्व किसी महान व्यक्ति का कांफिडेंस। आइए आज हम आपको मिलवाते हैं इस वर्ष के सबसे फेमस चेहरे वन एंड ऑनली मिस्टर धनमाडी से।

धनमाडी जी सबसे पहला सवाल, आपने अपना नाम क्यों बदल लिया ?
एक्चुली क्या है कि मेरे ज्योतिषियों ने मुझे सुझाया कि कलमाडी नाम मेरे ग्रहों के लिए ठीक नहीं है। कलमाडी का मतलब है आने वाला कल माड़ा (खराब)। इसलिए मैंने माडी से पहले धन जोड़ लिया। जिसके साथ धन होगा उसका कल कैसे माड़ा हो सकता है जी।
आप पर विपक्षी पार्टियां भ्रष्टाचार का आरोप लगा रही है, आपका क्या कहना है ?
देखिए। मेरा मतलब सुनिए। हमारे देश में चारा घोटाला, स्टांप घोटाला और शेयर घोटाला हो चुका है। पब्लिक बोर हो गई है। उन्हें कुछ नया चाहिए कि नहीं। वैसे भी यह हमारा गेम प्लान है। जिसमें हम सक्सेस हो गए हैं।
इस प्लान से क्या फायदा हुआ ?
ये सीक्रेट है। ये आपको कॉमनवेल्थ के बाद बताएंगे।
खेल के स्टेडियम उद्घाटन के बाद ही टपकने लगे हैं। दिल्ली की सड़कें टूटी पड़ी हैं। इतने कम समय में क्या आयोजन के सक्सेस हो पाएगा ?
वेरी इंटेलिजेंट क्वेस्चन। ये भी हमारे गेम प्लान का ही हिस्सा था। हम चाहते हैं कि हमारे सभी खिलाड़ी केवल और केवल गोल्ड मेडल ही जीतें। दूसरे मुल्कों के खिलाड़ी शातिर होते हैं और मेडल जीत जाते हैं। इस बार हमने स्टेडियम अपने अनुकूल बनाए हैं। सभी पिचों पर खड्ढे हैं। पानी टपक रहा है। ऐसे हालात में विदेशी खिलाड़ी कंफ्यूज हो जाएंगे। पर हमारे खिलाड़ी ऐसे हालातों में खेलने के मास्टर हैं। अगर हमारे खिलाडिय़ों को चीकना मैदान दे दें तो पीछे ही रह जाते हैं। अब देखते हैं कैसे हमारे होनहार मेडल नहीं जीतते। हमने उनको हर आसान सुविधा दे दी है अब। जहां तक दिल्ली की सड़कों की बात है, विदेशी यहां एडवेंचर करने आ रहे हैं। रहने थोड़ा है उनको यहां। ऊंची नीची गड्ढम गड्ड सड़क पर जब चलेंगे तो उनको कितनी खुशी होगी, ये आप नहीं समझ सकते। ऐवरीथिंग इस प्लांड माय ब्वाय।
आप तो भारत रत्न मांग रहे हैं ?
क्यों न मांगे भारत रत्न। चीन ने बीजिंग ओलंपिक में अपना जलवा दिखाया। अब हमें भी कुछ अलग करके दिखाना था। मैंने अपना काम ईमानदारी से किया है। अब देखिए। सारी दुनिया आतंकवाद आतंकवाद चिल्ला रहे हैं। खेलों पर आतंकवादी खतरा मंडरा रहा था। आतंकवादी क्या चाहते हैं, खेल न हो। आज की डेट में जो हालात हैं, उसमें विश्व में मैसेज चला गया है कि इंडिया में कोई कॉमनवेल्थ गेम्स होंगे ही नहीं शायद। आतंकवादी भी चैन की सांस लेंगे और हम भी। बाद में हम चुपके से खेल करवा देंगे। भारत को मेरे जैसा हीरा कहीं मिलेगा कहीं। बताइए तो सही। मैं ही हूं असली खेल रत्न।
अय्यर साहब ने तो अपशकुन कर दिया। कह रहे हैं कि दुष्ट लोग खेल करवाते हैं ?
अय्यर साहब का अपशकुल भी एक सोचा समझा प्लान है। यू नो हम सब एक ही झुंड के बंदे हैं। पहले वो खेल मंत्रालय में थे। अब मैं हूं। सब कुछ ठीक हो जाएगा। यू विल सी।
टेंडर काफी महंगे दामों में जारी हुए ?
आप क्यों नहीं चाहते कि इंडिया कभी तरक्की करे। मैं चाहता हूं कि दुनिया देखे कि इंडिया कितना आत्मनिर्भर हो गया है। हमने करोड़ों रुपए में कुर्सियों, जेनरेटर और तंबूओं के टेंडर दिए हैं। इससे मैसेज जाता है कि वी आर हैप्पी पीपुल। विदेशियों को भी हमने टेंडर दिए हैं। सारा काम बिल्कुल योजनाबद्ध तरीके से चल रहा है।
सुना है कि इस पूरे खेल पर बॉलीवुड में फिल्म बनने जा रही है। आपको क्या लगता है कि आपका रोल किसे निभाना चाहिए ?
ये बॉलीवुड वाले भी ना बस। इनको तो कोई न कोई स्टोरी चाहिए। चलो बढिय़ा है। इससे तो हमारा नाम ही रोशन होगा। वैसे आपको नहीं लगता मैं फिजिकली और लुकिंग वाइज कितना अटरेक्टिव लगता हूं। ये रोल मुझे ही मिलना चाहिए। अगर मुझे रोल नहीं मिला तो कम से कम आमिर खान मेरी जगह लें। क्योंकि जिस तरह मैं अपना हर काम परफेक्ट करता हूं वैसे ही आमिर बंदा भी मेरे नेचर का है।
एक और आखिरी सवाल
सवाल जवाब बहुत हो गए। मेरी आज अमेरिकी राष्ट्रपति के सलाहकार से मीटिंग हैं। हम सोच रहे हैं कि अमेरिका को निमंत्रण दे दें ताकि इसी बहाने उन्हें हमारे मुल्क का हाल पता चले। और हमें भी वो पाकिस्तान की तरह डॉलर ही दे जाएं। देखा मेरी स्कीम...अगर सब कुछ ठीक ठाक होता तो क्या हम अमेरिका की जेब से कुछ निकलवा पाने की सोच सकते। अपनी सोच का दायरा बढ़ाओ दोस्त।
ओके बाय।
कॉमनवेल्थ गेम्स के बाद मिलेंगे।

Saturday, July 24, 2010

फन्नी मगर खतरनाक है zindagi 365.com, देखों कहीं बकरा न बन jana

रवि, यहां आओ।
जी एक मिनट सर। 'यार अखबार तो ठीक है ना आज का। पेपर पर सरसरी नजर डालते हुए मैं बॉस के पास पहुंच गया'।
जी सर, 'मैंने उनके पास जाकर बॉस से बुलाने का कारण पूछा'।
'क्या तुम अब संस्थान के साथ काम नहीं करना चाहते। अचानक क्या हुआ', बॉस ने मुझे देखते हुए पूछा।
बॉस के ये अल्फाज मुझे किसी विस्फोट से कम नहीं लगे। मैंने तो अभी संस्थान छोडऩे बारे सोचा भी नहीं। एकदम से बॉस ये क्या पूछ रहे हैं।
सर, 'मैं क्यों छोड़ूंगा नौकरी'।
'तुम्हारा ईमेल मिला है मुझे। इसमें लिखा है कि मैं संस्थान से इस्तीफा दे रहा हूं। आज से मेरी सेवाएं समाप्त समझी जाएं', बॉस ने बताया।
'सर, शायद आपको गलतफहमी हुई है। मैंने ऐसा कोई ईमेल नहीं किया आपको', मैंने आत्मविश्वास मगर थोड़ा डरते हुए अपनी बात कही।
तो ये क्या है।
बॉस ने अपना कम्प्यूटर दिखाते हुए कहा। ये ईमेल तुम्हारे ही आईडी से तो मिली है मुझे। तो फिर तुम कैसे कह सकते हो कि तुमने ईमेल नहीं किया।
'सर, जरूर किसी ने मजाक किया होगा या फिर मेरा ईमेल आईडी हैक कर ये ईमेल कर दिया हो आपको'। बॉस को मेरी बात पर शायद विश्वास हो गया और उन्होंने मुझे अपना काम करने के लिए भेज दिया।
बॉस के कैबिन से बाहर आते हुए झूठे ईमेल बारे सोच रहा था। आखिर कौन हो सकता है, जिसने यह ईमेल कर दिया।
क्या हुआ रवि, बॉस क्या कह रहे थे। मेरे सहकर्मी ने मुझसे पूछा।
'कुछ नहीं यार। किसी ने मेरे ईमेल आईडी से बॉस को मेरे नाम से इस्तीफा भेज दिया'।
क्या बात कर रहा है, फिर तो बॉस बिगड़ गए होंगे।
'हां, थोड़े से नाराज थे। मगर मेरी सफाई से संतुष्ट हो गए। मैं जरा ईमेल आईडी खोलकर देखता है। शायद वहां से कुछ क्ल्यू मिल जाए'।
मेरा सहकर्मी और दूसरे साथी हंसने लगे और बन गया बकरा चिल्लाने लगे।
तब समझा, इन लोगों ने मिलकर मुझे बकरा बनाया है।
पर ये सब कैसे किया, मैं समझ नहीं सका।
बाद में पता चला कि मेरे साथी ने एक वेबसाइट पर जेड टूल से मेरे ईमेल आईडी से बॉस को मेल कर दिया था। यहां से अगर आपके ईमेल से किसी को ईमेल कर दी जाए तो कोई साबित नहीं कर पाता कि आपने ईमेल नहीं किया।
मैं जरूर थोड़ी देरी के लिए घूम गया, मगर आप जरूर ध्यान रखना। अगर आपके आईडी से कोई किसी को ईमेल कर दे तो घबराएं मत। क्योंकि यह www.zindagi 365. की करामात या यूं कहें कि कारस्तानी हो सकती है। मैं आपको इसका लिंक भी दे रहा है। यहां से आप इस खतरनाक जेड टूल का प्रयोग कर अपने दोस्तों को बकरा बना सकते हैं। मगर ध्यान रखें, ऐसा मजाक मत करना, जो जिंदगी पर भी भारी पड़ जाए।
http://zindagi365.com/
http://zindagi365.com/zmail.aspx

Sunday, July 4, 2010

...जान बचाओ प्यारो

चंटू को नया-नया इश्क हुआ। पर हाय री किस्मत! ये बुखार चढ़ा भी तो चौधरियों के ही अड्डे में। चौधरी तो चौधरी होते हैं भाई। कानून उनके लट्ठ के आगे पानी भरता है। फिर चंटू जैसों की हरियाणा में क्या बिसात। अगूंठा टेक चंटू ने ढाई आखर तो पढ़ लिए पर, प्रेम के बुखार का ताप छुपाने की तकनीक नहीं सीख पाया था। वैसे भी इश्क और मुश्क कहां छिपते हैं। एक दिन निकला था भैंसों को नहलाने दूसरे गांव में। भैंस पर बैठे-बैठे ही गांव की छोरी से चंटू की आंखें सात-आठ हो गईं। उधर भैंसे नहाने में मग्न हुई तो इधर चंटू मियां पीपल के पेड़ के नीचे इश्क के जोहड़ में गोते लगाने लग गए। पीपल के पेड़ पर तो वैसे भी भूतों का वास होता है। उसे क्या मालूम था कि पहेली फिल्म में शाहरुख खान तक भूत बनकर लटके थे। हालांकि पीपल के पेड़ पर भूत लटके थे या नहीं यह तो पता नहीं, लेकिन पेड़ के पीछे तो गांव के दो चौधरी पत्ते खेल रहे थे। चंटू के इश्क की फाइल गांव की गली से लेकर पंचायत तक पहुंच गई। 'भाईचारे के गांव में नैन लड़ाए और वो भी हमारे होते हुए। इश्क ही लड़ाना था तो किसी दूसरी स्टेट से छोरी खरीद लेता। माना कि इब छोरियों की कमी हो रही है। पर इसका मतबल ये नहीं चौधरियों की मूंछ काटने पर उतारू हो जाओ। दो दिन पहले ही दो को फांसी पर लटकाया था। क्या, भूल गया है चंटू। सूबा, डूंगा, फत्ता और दूसरे भाई आज तक कंवारे बैठे हैं। पर किसी की हिम्मत नहीं इश्क नाम की चिड़ी को दाना भी डाल दें। पंचायत को अपनी इज्जत बचानी होगी और एक बार फिर एक जोड़े का बोझ कम करना होगा'। पंचायत के चौधरी रुष्ट हो चुके थे। इसी बीच लट्ठ उठाए एक पंच ने मीडिया के टांग अड़ाने की बात कहते हुए सावधानी बरतने की सलाह दी। 'अखबार वाले तो नालायक होते हैं। इनकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। सुबह जो छापते हैं शाम को उसी पर जलेबी बिकती है। खाकी वर्दी वाले तो म्हारे ही छोरे हैं और लीडर को पंचायत ही चुनती है। तो फिक्र नॉट और अपने मुस्टंडों को चंटू की फाइल सौंप दो। जिस भी जोहड़, पीपल के पेड़ या फिर किसी धर्मशाला में दिखाई दे, उसे पकड़कर हाजिर करो। उसकी पारो को भी साथ लेकर आना। नैन बेशक चंटू ने लड़ाए है पर इसमें कसूर उसके बाबू और मां का भी कम नहीं है। ऐसा बेअकल छोरा पैदा कर दिया और गांव की इज्जत पर कलंक लगा दिया। चंटू को तो यमपुरी भेजना ही है पर इसके बाबू और मां को भी गांव निकाला दे दो। आज के बाद कोई बाबू और मां भी छोरा-छोरी पैदा करन से पहले सोच लेंगे कि बच्चों को कुछ भी बनाएंगे पर प्यार मोहब्बत के पाठ से दूर ही रखेंगे'। चौधरियों ने फैसला सुना दिया। ...और इसके बाद चंटू और उसकी पारो का तो कुछ अता पता नहीं चला पर फैसला सुनाने वाला चौधरी देश की सबसे बड़ी पंचायत में जरूर पहुंच गया है। यहां अब वो हिंदू मैरिज एक्ट को ही बदलने के लिए लट्ठ गाड़ रहा है। ...तो नैनों के आसपास अब घोड़े की तरह पट्टियां लगा लें। कहीं ऐसा न हो कि अंखियां लड़ जाएं बीच बजार और झेलना पड़ जाए लाठियों का प्रहार और खुल जाएं स्वर्ग के द्वार। चंटू भी वहां पहुंच चुका है और संदेश दे रहा है, ये इश्क नहीं आसां पारो, चौधरियों से जान बचाओ प्यारो।

Tuesday, March 2, 2010

...मैं कमजोर नहीं हूं

दीदी, 'अब हमारी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाओ। आप भी अपने लिए जीवनसाथी तलाश लो'।
'...नहीं आरती। उम्र बीत गई है। अब तो सीधे परमधाम पहुंच जाऊं, उतना ही काफी है। तुम मेरी चिंता छोड़ो, और अपनी जिंदगी को संवारो'।
उम्र के चालीसवें पड़ाव पर पहुंची सुमन को जिंदगी ने हर कदम पर धोखा ही दिया। 18वें साल में आगे पढऩे की आरजू सीने में दफना शराब का ठेका चलाने वाले के साथ विवाह के बंधन में बंधना पड़ा। मां-बाप ने पैसा देखकर शादी कर दी, सोचा बड़ी की शादी ऊंचे घर में हो जाएगी तो छोटों का भी कुछ न कुछ जुगाड़ हो जाएगा। शादी के दो साल बाद शराबी पति ट्रक एक्सीडेंट में मारा गया और ससुराल वालों ने कुलच्छनी और बुरी नजर वाली कहकर घर से निकाल दिया।
सोचा, अब जीने में क्या रखा है। पर, मौत को गले लगाना भी कहां तक ठीक है। 'हां, सह लूंगी दुनिया के ताने। पर ईश्वर के अनमोल तोहफे जिंदगी को बिना उसकी अनुमति क्यों जाया करुं'।
मायके में ही कपड़े सिलाई कर दो छोटी बहनों को पढ़ाया। छोटे वाली आरती तो कम्प्यूटर भी चला लेती है। दिन-रात कपड़े सिलते-सिलते आंखें भी जवाब देने लगी। जिन आंखों पर काजल लगाए बिना स्कूल न जाती थी, आज उनके नीचे काले धब्बे पड़ गए थे। लाचारी में पहना चश्मा सुमन को बहनों की आंखों में नजर आते उनके सुनहरे दिनों के सामने कुछ न था।
'दीदी...दीदी...तुम्हारे लिए फोन है'। आरती की आवाज से जैसे होश में आई सुमन ने ये भी ना पूछा किसका फोन है।
हैलो, 'क्या आप सुमन जी बोल रही हैं'।
जी हां, 'मैं सुमन बोल रही हूं, आप कौन बोल रहे हैं'।
'मैं राजेंद्र सहगल बोल रहा हूं। मैंने आपका बायोडाटा शादी डाट काम पर देखा था। मुझे लगता है कि हमें एक बार मिलना चाहिए...'
'एक मिनट, मैं आपकी बात नहीं समझी। शायद आपको गलतफहमी हो गई है। आपने गलत नंबर डायल कर लिया है। आय एम सॉरी', सुमन ने यह कहकर फोन काट दिया।
'क्या हुआ दीदी, क्या कह रहे थे वो, फोन पर'।
'तो तू जानती है, किसका फोन था। तुझे शर्म नहीं आती, अपनी बड़ी बहन से इस तरह का मजाक करते हुए'। सुमन ने बिना कोई जवाब मांगे, आरती को बुरी तरह डांट दिया।
'दीदी, मुझे माफ कर दो। मैंने अनजाने में आपका दिल दुखा दिया। मैंने आपसे बिना पूछे आपकी फोटो और एक बायो डाटा शादी डॉट काम पर रजिस्टर्ड कर दिया था। अब हम बड़े हो गए हैं दीदी। अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं। आखिर कब तक हमारे लिए अपनी जिंदगी को सुई में धागे की तरह पिरोती रहोगी। क्या आपका जीवन एक खाली कपड़े से निकलकर सजा हुआ सूट नहीं बन सकता। जिस कपड़े में आप सुई लगाती है, उस सुई को जरा अपने जीवन में भी अब पिरो दो दीदी...। आपको मेरी कसम। एक बार राजेंद्र जी से मिल लो। अगर न पसंद आएं तो इनकार कर देना'।
आरती की बातों से सुमन की आंखें भरभरा गई और राजेंद्र को फोन कर मिलने की रजामंदी दे दी।
'आज मैं दीदी को खुद अपने हाथों से तैयार करूंगी'।
दूसरों के लिए कपड़े सिलते-सिलते सुमन खुद तो जैसे सजना ही भूल गई थी। जीवन में ऐसा भी मोड़ आएगा, उसने कभी नहीं सोचा था। पहली बार आरती और सुमन एकसाथ राजेंद्र से मिलने गई। फिर दो-तीन बार की मुलाकात में सुमन को भी राजेंद्र से प्रेम हो गया...और एक दिन राजेंद्र ने सुमन के सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया।
अचानक चंद मुलाकातों में बात यहां तक पहुंच जाएगी, उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था। जिंदगी कैसे करवट बदल रही थी। राजेंद्र उसे हर वो खुशी दे सकता था, जिसे शायद उसने ख्वाबों में भी सोचा था।
'नहीं...नहीं...ये सच नहीं हो सकता। मैं अपनी खुशियों में इतना कैसे डूब सकती हूं। अब तो अंधेरों से मैंने लडऩा सीख लिया था। क्या अब मुझे किसी सहारे की जरूरत है। क्या फिर मैं कमजोर हो जाऊंगी...। जब मुझे कमजोर समझकर दुनिया ने पीछे छोड़ दिया..अबला नारी समझकर तानों से मुझे आत्महत्या तक सोचने पर मजबूत कर दिया...छोटी बहनों को दुनिया से लडऩे की ताकत देने के लिए खुद को मजबूत किया...क्या आज मैं उनको छोड़ अपनी खुशियां तलाशने चल पड़ूं।
राजेंद्र, आज अगर मैं कमजोर पड़ी तो फिर शायद उठ नहीं पाऊंगी। ये दुनिया फिर नारी को कमजोर समझ आगे निकल जाएगी। पर मैं कमजोर नहीं हूं।
मुझे माफ कर देना...'

Thursday, February 25, 2010

हो हो....होली

होली, कहां हो तुम होली।
कहीं दिखाई क्यों नहीं देती। क्या तुम्हारा आईएसआई ने अपहरण तो नहीं कर लिया। ये मुए आईएसआई वाले भारत में हर फसाद की जड़ हैं। नहीं, नहीं आईएसआई तुम्हारा अपहरण कर क्या करेगी। वो तो पहले ही अलग-अलग रंग के सियार बने घूम रहे हैं। तुम तो प्रेम बांटने वाली हो, दुनिया को एक ही रंग में ढलने का संदेश देने वाली।
अब इतना भी मनुहार मत करवाओ। आओ, न। हम सब तुम्हारा एक साल से इंतजार कर रहे हैं। रोज हमें पीने को भले ही पानी न मिले, पर आज तो पानी की नदियां बहाकर ही दम लेंगे। कल्लू से बदला लेने के लिए तो मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं। बुरा न मानो होली का नारा लगाते हुए कल्लू की सारी हेकड़ी निकाल दूंगा। रोज चमचमाती हुई सिटी होंडा पर जब जबड़ा खोलता हुए निकलता हैं तो मेरे तन-बदन में आग लग जाती है।
तुम क्या जानो, हमने तुम्हारे स्वागत में क्या-क्या तैयारियां कर रखी हैं। पिछले महीने से कीचड़ और कूड़े का ठेका हमने ले लिया था... इतना ग्रीस भी इकट्ठा हो गया है पूरे शहर को रंग दें।
ठेके से याद आया, निगोड़ी काली नागनी- दारू भी देखो तुम्हारे आगमन पर सस्ती हो गई है। फरवरी-मार्च का महीना है। ठेके वाले दारू बेचने पर उतारू हैं, सस्ती मिली तो दस-बीस पेटियां खरीद ली है। कहीं तुम चीन में तो नहीं चली गई। नाटे कद और चपटी नाक वाले इन चीनियों ने हमारी नाक में दम कर रखा है। होली, दिवाली हो या फिर दशहरा। हमारे सारे जश्न तो इनके लाडले ही होते जा रहे हैं। बच्चों को चीनी पिचकारियों और रंगों के बिना मजा ही नहीं आता। हमारा तो धंधा ही चोपट हो गया है।
इतने गिड़गिड़ाने के बाद होली आखिर प्रकट हो ही गई। मगर ये क्या! तुम्हें क्या हो गया। तुम्हारा चेहरा तो दलाल स्ट्रीट से निकले उसे आदमी की तरह हो गया है जो घुसा था तब करोड़पति था और बाहर आया तो गंजपति हो गया। बेचारे के बाल तक नीलाम हो गए हो जैसे।
देखो तुम हर साल मुझे मत बुलाया करो। मैं वैसे ही तुमसे दुखी हूं। पहले तो दुश्मन को दोस्त बनाते थे। पर अब...तुम सारा साल जिस कल्लू की तारीफ करते नहीं थकते, मेरे आते ही उसे पीटने पर उतारू हो जाते हो। राह चलती लड़कियों को छेड़ते हो, और बदनाम मैं हो जाती हूं...। पानी तुम बहाते हो और नाम मेरा लगा देते हो।
ये तुम कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हों। ये 21वीं सदी है। डार्विन का सिद्धांत भूल गई। इंसान लगातार बदल रहा है। पहले हम बंदर से इंसान बने और अब इंसान से बंदर बन रहे हैं...इससे पहले कि तुम फिर एक साल के लिए भाग जाओ...आओ तुम्हें कीचड़ स्नान करवा देता हूं।
बुरा न मानो होली है!

वो होली
जब तुम लाती थी खुशियां ढेर
पराए भी हो जाते अपने
आज होली
रंग गुलाबी, पीला हो या नीला
झूठी मुस्कान और मन मैला